तिब्बत कार्ड... -ड़ा (लेफ्टिनैन्ट कर्नल) राजेश चौहान


आज सुनने मे आ रहा है कि अमरीका ने सीधे सीधे ओस्ट्रेलिया और जापान से पूछ लिया कि वे साफ साफ बतायें कि किस हद तक वे चीन के खिलाफ अमरीका का साथ देंगे। उसी के हिसाब से शायद अमरीका भी अपनी ताईवान - चीन संघर्ष के लिए अपनी नीति बनाये। बीते समय मे हमने देखा ही है कि अमरीका आईसिस को खड़ा करवा सकता है, और जब खुद पर आंच आये तो आईसिस को मिटा भी सकता है। चाहा तो बीन लादेन को उड़ा सकता है, और चाहे तो बीन लादेन के साथी अहमद अल शरा को सीरिया का प्रेजिडेंट भी बनवा सकता है।

बात है सिर्फ चाहत और मौका परस्ती की। कोई रिश्तेदारी निभाने या पुराने कर्ज उतारने की बात तो नहीं है। इजराइल और यूक्रेन का अमरीकी समर्थन देख लीजिये। कभी बत्ती थोड़ी जलती है, तो कभी गुल हो जाती है। हथियार कभी कभार इजराइल को मिलते रहे, पर क्या समय पर अमरीका ने इजराइल के कैदी छुड़वाये, या निशाने पर और समय रहते ईरान के परमाणु जखीरे पर बम्ब गिराया?

यह खट्टी मीठी अमरीकी तरकीब है, सभी को उलझाये रखने की। सबसे पहले अमरीका केवल अपना फायदा देखती आई है। सुनने मे तो यह भी आता रहा है कि जहां आग नहीं लगी, वहां आग लगवा कर आपसी युद्ध भी छिड़वा देता है, फिर उन्हें अपने तमँचे-कारतूस भी बांटता और बेचता है। बोले तो दोनों हाथ घी मे सदा बने रहते हैं।

दलाई लामा जी भारत मे मार्च 1959 मे शरण लेने आ गये। अमरीका ने ही वहां ऐसा माहौल बनवाया था, जिसकी वजह से शांतिपूर्ण तिब्बत चीन के विरुद्ध होता चला गया। अमरीका ने ही तो तिब्बती लोगों को अपने हथियार, गोला, बारूद, और ट्रेनिंग देनी शुरु की थी। जब चीन हावी हुआ, तो अमरीका वहां से दुम दबाकर वहां पतली गली से निकल लिया। 

आज अमरीका को चीन से मुकाबला करने के लिए तिब्बत कार्ड की पुनः जरूरत पड़ी, तो दलाई लामा भी याद आये, और भारत भी। पिछले 66 सालों से तो वो तिब्बत, और दलाई लामा को भूले हुए था। पाकिस्तानी मुहब्बत मे ऐसा डूबा था अमरीका, कि भारत से सौत का सा व्यवहार करते भी कोई परहेज या संकोच नहीं था। पिछले 66 साल मे कुछ भी तो usa ने तिब्बत या दलाई लामा के लिए सार्थक किया क्या इतने समय मे? और इधर दलाई लामा जी और तिब्बत ने 66 सालों मे यहां रहते हुए भी भारत के लिए कुछ भी सार्थक किया कभी? हाँ, कुछ बेहद सीमित सिपाही हैं हमारे यूनिट मे, पर इनसे तो बीस तीस गुना ज्यादा नेपाली भाई हैं हमारे साथ फौज मे। नेपाल तो बेहद छोटा सा देश है, तिब्बत के मुकाबले। और क्या अब तक मिला है भारत को? इस हकीकत को पहचानने की जरूरत है, और मध्य कालीन इतिहास को देखते हुए ही अगली कोई रणनीति बने। वैसे यह भी सोचियेगा कि इतने बौद्ध प्रमुख मुलकों मे से कितनों ने भारत समान मदद की हो अब तक।

जापान के बौद्ध, सारनाथ और बौद्ध गया को मानने वाले हैं। यह हम इसलिए भी जानते हैं कि पंद्रह सोलह साल पहले हमसे पूछा गया था कि क्या हम जापान द्वारा संचालित बौद्ध गया के अस्पताल का संचालक और डॉक्टर बनना पसन्द करेंगे। हम तब तक आगरा मे अपना घर बनाकर वहां बस चुके थे, इसीलिए हमने क्षमा मांगी। श्री लंका के बौद्ध अनुयायी भी तो बौद्ध गया और सारनाथ, साँची, को महत्व देते हैं, जैसे कि हमारे पूर्वी मुलकों के बौद्ध। हमारे देश के ज्यादातर बौद्ध अनुयायी भी श्री लंका और जापान, थाईलैंड, बरमा के बौद्ध की ही तरह मानने वाले हैं।

आजकल भारत थोड़ा बदल सा गया है, और अपने फैसले अपने भले को प्रार्थमिक्ता देते हुए करता है। इसीलिए हमने यह प्रारूप लिखने का प्रयत्न किया है। देश का भला यदि देखना है, तब अमरीका का एकाएक भारत और तिब्बत कार्ड पर प्रयत्न को बारीकी से देखने की जरूरत है। ऑपरेशन सिंदूर मे हमने साफ पाया कि अमरीका के गोला- बारूद, लड़ाकू जहाज, और अमरीका द्वारा पोषित पाकिस्तानी जिहादी भारत के खिलाफ इस्तेमाल हुए। और अब अमरीका भारत का सपोर्ट चाह रहा है। इसके लिए पासा वो ट्रेड टेरिफ का भी हमपर फेकते चूका नहीं। कहां तक और कब तक अमरीका हमारा साथ निभायेगा। मतलब की यारी कहां तक चलेगी।

दूसरी ओर चीन है। कभी वो पाकिस्तान का भारत के खिलाफ साथ देता है, तो कभी हमारे पूर्वी प्रदेशों के उपद्रवियों को। हम सन 1962 मे ही चीन से किन्ही वजहों से हारे थे। पर देखें तो 1962 से पहले अनेकों बार चीन मे घुस घुस कर अंग्रेजी कमण्डरों के नेतृत्व मे हमने उन्हें हराया था। 1967 मे भी वे हारे, जैसे कि उसके बाद डोकलाम ओर गलवान मे भी। 1986 ओर 1987 मे हम 9 गार्ड्स बटालियन, 14 पंजाब बटालियन, और 12 आसाम रेजिमेंट के डॉक्टर बनाकर भेजे जाते रहे। यदि श्री राजीव गाँधी 9Guards को अंतिम समय पर रोकते नहीं, तो उस पलटन के साथ हम भी तैयार थे चीन मे घुस जाने को। यहां बताते चलें कि ऐसा नहीं था कि हम ही वहां अकेले डॉक्टर थे। बहुतेरे थे, पर ऐसे मिशन के साथ हमें ही चुनकर भेजा जाता रहा। कारगिल युद्ध मे भी हमें द्रास मे टाइगर हिल, तोलोलिंग, और मशकोह क्षेत्र के फील्ड हॉस्पिटल मे 2IC बनाकर भेजा था ना।

चीन भी अच्छी तरह से जानता है आज के भारत का दम खम। यदि लड़ना है, तो लड़ ही ले हमसे। बुरी तरह पछतायेगा। आज हमारी फौज का असलाह, हथियार, और काबलियत मोदी जी के कार्यकाल मे पहले से दस गुनी हो गई है। पाकिस्तान के जिहादी ठिकाने केवल और केवल 25 मिनट मे तबाह कर दिये थे। ऐसा नहीं कि पाकिस्तान ने अपने बचाव और काउंटर अटैक की कोशिश नहीं की, पर सब व्यर्थ गईं। अमरीकी, चीनी, या तुर्कीये द्वारा पाकिस्तान को दी गई सभी सहायता बेकार गई। यह तो पूरी दुनिया ने देखा ही होगा। और क्या चीन ने नहीं देखा, जाना, व अच्छी तरह समझा होगा?

वियतनाम तक ने तो चीन और अमेरिका के छक्के छुड़ा दिये थे। सन 1962 मे हम तैयार नहीं थे। पर आज अच्छी तरह से हैं। चीन यदि चाहे तो हमसे लड़ कर देख ले। बुरी तरह हारेगा। भारत की हमेशा से जियो और जीने दो की नीति रही है। दोस्ती करोगे, तो सभी का फायदा। वरना पछताओगे। आजमा ही लो।

जहां तक तिब्बत का सवाल है, जवाब तिब्बतियों और दुनिया को ढूंढना है। भारत अकेले ही अपने दम पर तिब्बत के लिए फैसला अब न ले। यही हमारी सलाह रहेगी। जैसा अमरीका या इंग्लैंड करता है, कि बिना nato की सलाह के नहीं आगे बढ़ता, तिब्बत की बात uno, अमरीका, और nato की सहमति और बराबर की संलग्नता के साथ ही भारत सोचे। तिब्बत ने सन 1959 से लेकर आज तक चुप्पी साधकर रखने का निर्णय लिया। भारत तिब्बत को मुक्त करा सकता है एक सप्ताह के अन्दर। पर बंगलादेश से भी कुछ सबक सीखते हुए हम दुनिया की प्रक्रिया और उनके कदम बढ़ाने का इंतजार करें। और यदि चीन समझदारी दिखाते हुए भारत से शांति चाहता है, तो एक नये रुपरेखा से पंचशील सन्धि तैयार हो, जो अगले सौ वर्ष तक तो मान्य हो। भारत के कंधे से कोई भी अपनी बंदूक न चला पाये, खासतौर से अमरीका। 

उपरोक्त सभी मेरे ही मन की बातें हैं। और मैं चाहूंगा कि सभी मसले शांति से ही निबट जायें। तिब्बत, हमारा, व ताईवान का भी। साथ ही साथ रूस यूक्रेन, जिहादी, और इजराइल के मसले भी हमेशा के लिए सुलझ जायें, यही बुढ़ापे मे हमारी प्रार्थना रहेगी। 

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