आशा पारस फाउंडेशन फॉर पीस एंड हार्मोनी द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘देहरी के आर पार‘ का हुआ विमोचन


समतामूलक समाज की स्थापना पर केंद्रित है देहरी के आर पार – कमला मिश्रा, सामाजिक चिन्तक और मुख्य अतिथि

जेंडर समता मूलक समाज के लिए देहरी के आर- पार पत्रिका ज़रूरी- प्रोफ़ आशा शुक्ला - प्रधान संपादक

सावित्रीबाई फुले के जीवन को आत्मसात करने की आवश्यकता- कुसुम त्रिपाठी -नारीवादी चिन्तक



भोपाल. आशा पारस फाउंडेशन फॉर पीस एंड हार्मोनी द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘देहरी के आर पार ‘ निश्चित ही इस समाज में समता मूलक समरसता को स्थापित करने में एक मील का पत्थर साबित होगी,उक्त बातें मुख्य अतिथि के रूप में इटावा से जुड़ी सामाजिक चिन्तक श्रीमती कमला मिश्रा ने ‘ देहरी के आर पार’ के लोकार्पण के अवसर पर कही. आशा पारस फॉर पीस एंड हारमनी फाउंडेशन एवं वेद फाउंडेशन द्वारा आयोजित ‘पत्रिका का लोकार्पण’ एवं राष्ट्रीय परिसंवाद ‘नारीवादी पत्रिकाओं के सामाजिक सरोकार’ सावित्रीबाई फुले की जयंती के अवसर पर ऑनलाइन माध्यम पर आयोजित हुआ।

पत्रिका के बहाने अपनी बात में पत्रिका की प्रधान संपादक एवं डॉ. बी.आर. अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रो. आशा शुक्ला ने कहा कि यह पत्रिका निश्चित ही समरस एवं समतामूलक समाज की स्थापना पर केंद्रित है. ‘सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस’ पर पत्रिका का लोकार्पण इसके उद्देश्यों को अंतर्निहित और सामाजिक प्रतिबद्धता को दिखाता है.

मुख्य अतिथि का परिचय देते हुए कथाकार सुनीता आदित्य ने वताया कि किस तरह गंभीर आर्थिक विपन्नता के बाबज़ूद श्रीमती कमला मिश्रा ने अपनी पाँचों संतानों को क़र्ज़ लेकर उच्च शिक्षा दिलायी बल्कि आस पास के वातावरण को भी शिक्षामय बनाया , उन्होंने दहेज़ प्रथा, जाति पाँत के भेदभाव और पर्दा प्रथा का खुल कर विरोध किया और अपने पति के उच्च समाज सेवा के जीवन में पूरा सहयोग किया ।

 मुख्य वक्ता के रूप में मुबई से नारीवादी चिन्तक एवं लेखिका कुसुम त्रिपाठी ने कहा कि देहरी के आर पार पत्रिका का नाम समाज में स्त्रियों के स्थिति को रेखांकित करता है. देहरी के अंदर रहने वाली और पार यानि जो बाहर निकल गई हैं. आज भी हमारे देश में अधिकांश महिलाओं केवल साक्षर यानि वह केवल हस्ताक्षर कर पाती हैं. सावित्रीबाई फुले का सपना तब पूरा होगा जब हमारे बैंकों में, सरकारी दस्तावेजों में अंगूठा लगाना लगभग गायब हो जायेगा. एक तरह तो कल्पना चावला जैसी वैज्ञानिक हैं तो हमारे राष्ट्रपति भी महिला हैं. शहर और गांव के बीच में जो जमीन-आसमान का फर्क है उसको ख़त्म करने की जरुरत है.इसी समाज में ऐसी औरतें भी हैं जो पुरुषों के साथ कंधा से कन्धा मिलाकर काम कर रही है ओर ऐसी भी महिलाएं हैं जो अभी तक घर की देहरी को पार नहीं कर पाई है पत्रिका के माध्यम से उन महिलाओं के मुद्दों को सामने लाने की जरूरत होगी जिनको महज एक उत्पाद के रूप में देखा जाता है.

भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत रहे अध्येता श्री आदित्य वाजपेयी ने आध्यात्मिक आख्यानों और उपनिषद - वेदों को उद्धृत करके पत्रिका की वैचारिक दशा- सोच और दिशा पर अपनी वात रखी ।

प्रोफेसर विनीता भटनागर ने कहा है कि मानव सरोकार और मानव उपलब्धियों के रूप में पहचान दिलाने के लिये यह पत्रिका निश्चित ही एक स्तंभ के रूप में देखी जाएगी. इस पत्रिका में छपे आलेख समाज को एक नई दिशा तथा समाज में जेंडर समता मूलक दृष्टिकोण को विकसित करने की पहल करती दिखाई देती है. पत्रिका के माध्यम से समाज में हो रही कुरीतियों पर निरंतर लेख लिख समाज को जागरूक करने की आवश्यकता है. निश्चित ही यह पत्रिका समाज के उन बिंदुओं को शामिल करेगी जिनको हाशिए पर ढकेल दिया जाता है.

सामाजिक चिंतक व लेखिका सुनीता पाठक ने कहा कि यह पत्रिका केवल महिलाओं के पक्ष में ही नहीं है बल्कि यह समाज में जेंडर समानता को विमर्श प्रदान करने वाली पत्रिका है इस पत्रिका के माध्यम से समाज में जेंडर असमानता पर जागरूकता फैलाई जा सकती है ।निश्चित ही पत्रिका एक कीर्तिमान स्थापित करेगी.

शिक्षाविद अरविंद मिश्रा ने कहा यह बहुत समीचीन है कि ये पत्रिका सामाजिक मूल्यों पर प्रतिबद्ध है ।पत्रिका समाज में व्याप्त कुरुतियों रुढ़ियों को मिटाने का प्रयास करेगी. पत्रिका में दहेज उन्मूलन भ्रूण हत्या गरीबी महिला अधिकार तथा समाज में व्याप्त छुआछूत जैसे मुद्दों को शामिल कर समाज को जागरूक करने का प्रयास करेगी ।पत्रिका की पहुँच ग्रामीण और शहरों तक हो ,यही मेरी शुभकामना है.

एडिशनल एसपी सीमा अवाला ने कहा कि पत्रिका के माध्यम से हमें आदिवासी अंचल तक पहुंचने की आवश्यकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में ह्यूमन ट्रैफिकिंग, क्राइम अगेंस्ट वीमेन तथा मर्डर जैसे क्राइम निरंतर सामाजिक पर्याय हैं. झाबुआ-अलीराजपुर के बारे में आप गूगल में सर्च करें तो आपको पता चल जायेगा. थर्ड जेंडर एलजीबीटी जैसे मुद्दों का पत्रिका में शामिल होना पत्रिका के समतामूलक एवं सामाजिक प्रतिबद्धता को दिखाता है. सुनीता आदित्य तथा आदित्य वाजपेयी ने भी देहरी के आर पार पत्रिका के उद्देश्य पर केंद्रित अपने विचार रखे.


प्रो. कुसुम कुमारी, प्रो. शोभा शिंदे, प्रो. सुरेंद्र पाठक, प्रो. सबिहा हुसैन, डॉ. हिमानी उपाध्याय, डॉ. मनीषा सक्सेना, पत्रकार राजेश जौहरी,डॉ. सुशीला गोयल, डॉ रत्ना मूले, डॉ. धीरेंद्र शुक्ल, डॉ. विनय पाठक, डॉ. कृष्णा सिन्हा, अरबिंद तिवारी ,अंकुर शुक्ल तथा शिव प्यारी, राम शंकर, मनोज गुप्ता , अजय दुबे , वंदना गुप्ता सहित अन्य कई गणमान्यों ने शुभकामना वक्तव्य प्रदान किया. आभार प्रोफ़ आर के शुक्ला निदेशक , आशा पारस फाउंडेशन द्वारा व्यक्त किया गया और कहा कि इस पत्रिका के लिए जितना वैचारिक परिश्रम किया गया , वह सराहनीय है।उन्होंने सभी के प्रति आभार माना।

द्वितीय सत्र में आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद ‘ स्त्रीवादी पत्रिकाओं के सामाजिक सरोकार’ का आयोजन हुआ.  


डॉ. मार्कंडेय राय अध्यक्ष, वेद फाउंडेशन ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि देहरी के आर पार शब्द से आशय चौखट के अन्दर और बाहर से होता है. यह पत्रिका नारीवादी पत्रिका नहीं है बल्कि जेंडर समतामूलक स्वस्थ समाज की स्थापना हेतु नारी मुद्दों पर केंद्रित पत्रिका है. नारी के बिना सफल जीवन का संचालन संभव नहीं है. बिना शक्ति के शिव भी शव हैं और जब भगवान ने पुरुष और नारी को बनाया तो कभी अंतर नहीं रखा. इस पत्रिका में दहेज, सामाजिक विसंगतियां, भ्रूण हत्या, पापुलेशन डिसबैलेंस जैसे मुद्दों को उठाने की आवश्यकता है. चीन के अलावा भारत के हरियाणा और अन्य जगह पर भ्रूण हत्या के चलते लड़कियों हत्याएं हो रही हैं. बाल विवाह अभी भी हो रहे हैं उनसे संबंधित मुद्दों पर लिखने की जरुरत है. यह पत्रिका समाज को जोड़ने का काम करेगी. स्त्री और पुरुष दोनों देहरी के आर-अपार रहते हैं. जी-20 के रिपोर्ट को देखें तो उसमें जेंडर एंपावरमेंट की बात कही गई है. विश्व एक परिवार है वन अर्थ वन फैमिली वन फ्यूचर के नारे को कैसे क्रियान्वित करें ताकि एक स्वस्थ समाज की स्थापना हो सके. फैमिली की समस्याओं को हल करते हुए फैमिली के सिस्टम को सुधारने में इस पत्रिका की अहम् भूमिका हो ऐसी उम्मीद है.




दिल्ली विश्वविद्यालय के अदिति महाविद्यालय के हिंदी पत्रकारिता विभाग की प्रोफ़ेसर डॉ. माला मिश्रा ने विशिष्ट वक्ता के रूप में संबोधित करते हुए कहा कि हिन्दी पत्रकारिता में स्त्री पत्रिकाओं की शुरुआत भारतेन्दु के बालाबोधनी से हो गई थी, किन्तु उसका उत्कर्षकाल चाँद जैसी पत्रिकाओं के बाद देखा जाता है. रामेश्वरी देवी नेहरू के संपादन में छपने वाली ‘स्त्री दर्पण’ जैसी पत्रिकाएं थीं जिनका उद्देश्य स्त्रियों के राजनीतिक-सामाजिक हितों की चिंता, उनके बौद्धिक क्षितिज का विस्तार, लैंगिक समानता और विश्व के अन्य देशों में चल रहे स्त्री आंदोलनों की परख करना रहा है। तीसरे चरण में ‘चाँद’ जैसी पत्रिकाएं देखी जा सकती हैं जो सामाजिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही थीं. 


स्वतन्त्रतापूर्व प्रकाशित होने वाली ये पत्रिकाएं स्त्रियों के आधुनिकीकरण का प्रयास कर रही थीं, वे पढ़ी-लिखी स्त्रियों को उन्मुक्त वैचारिक और रचनात्मक अभिव्यक्ति का व्यापक फलक प्रदान कर रही थीं लेकिन इनमें उच्च और मध्य वर्ग की स्त्रियों की ही भागीदारी थी. कहीं भी ये पत्रिकाएं हाशिये की स्त्रियों के अधिकारों और उनकी अन्तश्चेतना के विस्तार की चर्चा करती नहीं दिखाई पड़ती हैं. पहले दौर की पत्रिकाओं में स्त्रियों के आचरण, घर-गृहस्थी की साज–संभाल, यौन शुचिता और स्त्री-शिक्षा सम्बंधित लेख छपते थे; तो दूसरे दौर यानी ‘स्त्री-दर्पण’ सरीखी पत्रिकाओं के लेखों और सम्पादकीयों में स्त्रियों को स्त्रियोचित भूमिकाओं तक ही सीमित रखने का विरोध किया गया. तीसरे दौर में ‘स्त्रीधर्म’ और ‘चाँद’ सरीखी पत्रिकाओं में स्वाधीनता आन्दोलन में स्त्रियों को भागीदारी के लिए प्रेरित किया गया और ‘चाँद’ में तो स्त्री को बौद्धिक चेतना संपन्न व्यक्ति मानकर पुरुषों के समकक्ष रखकर देखा है.


इस वजह से इन पत्रिकाओं को व्यापक आलोचना का शिकार भी होना पड़ा. कुमारी दर्पण भी निकली, लेकिन ‘स्त्री दर्पण’ ही हिंदी पट्टी में स्त्री आन्दोलन का सबसे सशक्त हस्ताक्षर मानी जाती रही है. इसके अलावा हिंदी में ऐसी कोई पत्रिका नहीं थी जो इतनी गंभीरता से स्त्री-मुद्दों पर विचार- विमर्श करती है. निश्चित तौर पर हिंदी के आर-पार पत्रिका उन उदेश्यों और प्रतिमानों को स्थापित करेगी जिन उद्देश्यों को लेकर चली है.एमिटी नोएडा के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की एसोशियेट प्रोफ़ेसर डॉ. अंशु अरोड़ा ने कहा कि आजकल मार्केट फोर्सज और उपभोक्तावाद दबाव हर जगह पड़ रहा है. पत्रकारिता के यूनिवर्सिटीज और संस्थानों में भी देखने को मिल रहा है कि बच्चों में पढ़ने का रुझान स्पेशल मैगजींस और पत्रिकाओं की ओर से धीरे-धीरे चेंज होता जा रहा है. निश्चित ही यह चिंता का विषय है. उसके लिए हमें अपने कंटेंट में बदलाव करने की जरुरत है हमें विज्ञान, धर्म और संचार को एक साथ जोड़कर देखने की. हमारे समाज में विज्ञान को लेकर जो भ्रांतियां हैं जिसको दूर करने की बहुत ज्यादा आवश्यकता है. हमें एक ऐसा समाज निर्मित करने की जरुरत है जहाँ पर एक महिला दुसरे की मदद करें और एक दूसरे के सपोर्ट में खड़ी रहें.

इस अवसर पर देश- विदेश के नामचीन एवं साहित्यप्रेमी उपस्थित रहे.

टिप्पणियाँ