देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सैनानी मालवा मध्यप्रदेश में स्थित नरसिंहगढ़ रियासत के महाराजकुमार चैनसिंहजी उमट परमार (पँवार) के 196वें बलिदान दिवस पर शत् शत् नमन


अधिकांश भारतीयों को बताया गया है कि स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ 10 मई सन् 1857 ई. को मेरठ के सैनिक विद्रोह से प्रारंभ हुआ था जबकि इसकी शुरुआत तो सन् 1824 ई.में ही हो गई थी, जब मालवा नरसिंहगढ़ रियासत के महाराजकुमार चैनसिंहजी परमार ने अंग्रेजों के क्रूर शासन और हड़प नीति को खुली चुनौती देते हुए मात्र 24 वर्ष की आयु में 24 जुलाई, 1824 ई. को सीहोर के छार बाग (मालवा, म.प्र.) में अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।


 इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में 250 से अधिक स्वतंत्रता संग्राम सैनानी काम आये थे जिसमें आसपास के राजपूत जागीरदारों के साथ दो पठान भाई बहादुर खान, हिम्मत खान और साथ आए नाई, ढोली और उनके वफादार कुत्ता शेरु ने भी वीरगति प्राप्त की थी।


यह स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रांति के 33 वर्ष पूर्व की घटा था, इसलिए महाराजकुँवर चैनसिंहजी परमार (पँवार) ही भारतवर्ष के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी है।


महाराजकुमार चैनसिंहजी के जीवनवृत्त पर स्व.बलदेवसिंहजी परिहार (विदिशा) और ठा.सुरेन्द्रसिंहजी पँवार (जबलपुर) ने बहुत उपयोगी जानकारी युक्त एक पुस्तिका लिखी है। रियासत के दीवान आनंदराम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा अंग्रेजों से मिल गए थे, इस कारण कुँवर चैनसिंह ने इन दोनों को मार दिया।


यहाँ पर भी अंग्रेजों ने हड़प नीति के तहत नरसिंहगढ़ को अपने अधीन करना चाहा क्योंकि नरसिंहगढ़ की राजस्व आय बहुत अच्छी थी । महाराजकुमार पर झूठे केस में फंसाकर पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक ने कुँवर से कहा कि इन हत्याओं से यदि आपको बचना है तो 2 शर्तें माननी होंगी :- 


1) नरसिंहगढ़ रियासत अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करे।


2) नरसिंहगढ़ में होने वाली अफीम का सारा हिस्सा अंग्रेजों को ही बेचा जाए। स्वतंत्रता प्रेमी कुँवर ने दोनों ही शर्तों को ठुकरा दिया था और संघर्ष का रास्ता चुना था।


 


अंग्रेजों की तोपों और बंदूकों का सामना कुँवर ने अपनी तलवार से घंटों तक किया था। ऐसा भी बताया जाता है कि इस धर्म युद्ध में कुँवर साहब ने अपनी तलवार की नोक से लक्ष्मण रेखा खींच दी थी और कुँवर साहब की सत्यनिष्ठा का परिचय यह था कि तोप का एक भी गोला उस तलवार से खींची रेखा को पार नहीं कर सका था, सभी गोले शिविर के बाहर ही गिरे थे। 


युद्ध के अंतिम समय में जब कुँवर साहब के योद्धा एक-एक करके वीरगति को प्राप्त होते गये तो गुस्से में भरकर कुँवर चैनसिंह ने तलवार का एक ऐसा करारा वार आग उगलती अष्टधातु की उस तोप पर किया था जिससे तोप भी कट गई और तलवार उसमें फंस गई।


जब कुँवर साहब चारों ओर से दुश्मनों से घिर गये थे तब उन्होंने अंग्रेजों के हाथों बंदी बनने से अच्छा स्वयं अपने ही हाथों से अपना सिर मातृभूमि को अर्पित कर दिया। जैसे ही कुँवर चैनसिंहजी ने अपना सिर काटा वैसे ही उनमें अलौकिक शक्ति समाहित हो जाती है, वह सिर कटा धड़ दोनों हाथों से तलवार चलाता है और उस धड़ को संभाल रखा था उनके राखीबंध मामा खानबंधु बहादुर खान और हिम्मत खान ने सहारा दे रखा था। अंग्रेजों को लगा कि ये दोनों खान तलवार चला रहे इसलिए उन्होंने दोनों भाईयों को बंदूक की गोली का निशाना बनाते हैं। लेकिन फिर भी धड़ लड़ता रहता है तो वहाँ भी किसी हिन्दुस्तानी गद्दार ने उन्हें बताया कि किसी अस्वच्छ वस्त्र या वस्तु से देह को स्पर्श करा दे तो देह शिथिल हो जाएगी। युद्ध क्षेत्र में अंग्रेजों के पास अपना झंडा था जिससे कुँवर साहब बहुत नफरत करते थे, जैसे ही उस झंडे को कुँवर की देह से स्पर्श कराया जाता है , वैसे ही देह धीरे -धीर शिथिल हो जाती है । और इसके साथ ही शिथिल हो जाता है देश, धर्म के लिए लड़ा गया यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम।


अंग्रेजों ने इस युद्ध की ज्यादा चर्चा नहीं की है क्योंकि महाराजकुमार सहित 250 से ज्यादा वीर योद्धा भारतभूमि के लिए लड़ते हुए काम आए थे जबकि अंग्रेजों की तरफ से 30 हजार से अधिक लोग मारे गये थे।


अंत में,,


कु्ँवर चैनसिंह राजा की कहाँ तक हम करे बढ़ाई।


फिरंगियों को जिसने भूला दिया था करना लड़ाई।।


प्रस्तुति-


नरेन्द्रसिंह पँवार, गढ़ी भैंसोला


राष्ट्रीय अध्यक्ष 


राजा भोज जनकल्याण सेवा समिति, रतलाम (मालवा)


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