चेतक नहीं चेटक था महाराणा के घोड़े का नाम, उसकी याद में उन्होंने किया था ग्रामदान

महाराणा प्रताप ने अपने प्रिय अश्व चेटक के निधन पर हल्दी घाटी के मुहाने पर स्थित वलीचा गांव श्रीमाली श्रीधर व्यास को अग्रहार किया था। इसके साथ ही लागत, विलगत, रूंख - वृक्ष, कुंआ नीवान, नींव-सीम... सब अधिकार दिया। विश्व इतिहास में अश्वप्रेम का ऐसा उदाहरण अनूठा ही है। महाराणा ने इसके लिए बकायदा ताम्रपत्र जारी किया। निश्चित ही यह हल्दीघाटी युद्ध, 1576 ई. के तत्काल बाद का होगा।


बाद में हुए झगड़ों में ये ताम्रपत्र कहीं खो गया लेकिन इसकी स्मृति बनी रही। इसी आधार पर महाराणा जवानसिंह ने श्रीधर के वंशजों चतर्भुज, देवकिशन और जगनेशवर के नाम संवत् 1891 में चैत्र शुक्ला 5 को नया ताम्रपत्र जारी किया। मेवाड़ के दस्तावेजों में यह एक रोचक तथ्य है कि महाराणा प्रताप के प्रति उनके वंशजों में इतना आदर रहा था उनके प्रत्येक दस्तावेज़ का समय - समय पर नवीकरण होता रहा।


अश्व के लिए ग्रामदान का ये अनूठा प्रसंग मुझे वलीचा के वयोवृद्ध श्री जमनालालजी श्रीमाली ने 1984 में सुनाया था। उनको यह दंताल दूहे के रूप में मुखाग्र था :


गांव वलीचे के निकट, चेटक ग्यो सुरधाम। 


वही गांव वर विप्र को, पाताल किन्ह प्रदान।।


बाद में इस सन्दर्भ का एक प्रमाण उनके पुत्र, मित्रवर श्रीमोहनलाल श्रीमाली ( हल्दीघाटी संग्रहालय के संचालक) लेकर आए। मैंने महाराणा जवानसिंह कालीन ताम्रपत्रों की बही में देखा और अपने अनेक लेखों, पुस्तकों में लिखा भी। हाल ही आदरणीय श्री पुष्पेन्द्रसिंह जी राणावत सा ने वही पाठ मुझे पढ़ने को भेजा। मन हुआ कि मित्रों तक यह बात दस्तावेज़ सहित पहुंचे कि प्रताप के प्रतापी मन में पशु के प्रति कितनी संवेदनशीलता थी...।



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