समाज कि अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का जब उद्धार होगा तभी वास्तविक ”अंत्योदय“ होगा, ये हमारा ध्येय भी है और संकल्प भी - कलेक्टर डाॅ. अभय अरविंद बेडेकर

 


यशवन्त जैन, अलीराजपुर 

नाम है बजरी

नाम- बजरी पति केरसिंह

निवासी-पेरियोत्तर फलीया, अलिराजपुर

प्राणदायिनी माँ नर्मदा नदी की गोद में स्थित आदिवासी बहुल ज़िले आलिराजपुर के सोंडवा ब्लाॅक की ककराना पंचायत।

पंचायत का पेरियोत्तर फलिया

आलीराजपुर ज़िला मुख्यालय से लगभग 50-55 किलोमीटर स्थित पंचायत ककराना माँ नर्मदा की गोद में बसी है।इसी पंचायत के आठ फलियों में से एक फलीया है “पेरियोत्तर” फलीया।

सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में आने वाले गाँवो में एक ये गाँव/ फलिया भी है।

जब ये फलीया डूब में आया तो सरकार ने ज़मीन के मालिकों को मुआवज़ा दिया । बजरी के ससुर तूर सिंह को 05 एकड़ ज़मीन गुजरात में मिली पर आदिवासी का ज़मीन से इतना प्रेम होता है कि समस्त कठिनाइयों के बाद भी वो अपनी ज़मीन छोड़ कर नहीं जाना चाहते/नहीं गये।



तूर सिंह खाँटी आदिवासी है और उसके 08 पुत्र और 02 पुत्रियाँ हैं। जब मैंने उस से पूछा कि

”10 बच्चे?? आपके 10 बच्चे हैं फिर राशन कार्ड में सिर्फ़ 02 बच्चों साय (केर) सिंह और भाय सिंह के ही नाम क्यूँ?“

उसने मासूमियत से जवाब दिया कि सिर्फ़

”ये दोनो ही मेरे साथ रहते है “

”बाक़ी“?

”बाक़ी अपना अलग घर बना लिये है।“

मुझे ये भी लगा कि आज से 20-25 साल पहले बच्चों के बचने कि प्रत्याशा कम होने से शायद आदिवासी ज्यादा बच्चे पैदा करते हों?

जल, जंगल और ज़मीन से जैसे आदिवासी जुड़े हैं वैसे शायद ही कोई और जुडा हो।

आप उनसे उनके प्राण माँग सकते हो पर ज़मीन नहीं।आदिवासियों की ज़मीन ज़बरदस्ती लेना उनके लिये प्राण लेने जैसा है।

तो हम बात कर रहे थे बजरी की।

पेरियोत्तर फलीया में एक 10-10 के मिट्टी के घर (झोंपड़े) में बजरी अपने पति केर सिंह और 03 बेटियों के साथ रहती है। उस मिट्टी के घर में ना बिजली है ना सोने के लिये पलंग है ना कोई कुर्सी मेज़ है।

ना अनाज रखने के कोई कोठार हैं ना ज़्यादा बर्तन है ना गैस है।

ओह.. जीवन कितना कठिन है/हो सकता है।

फिर भी बजरी कहती सी लगी कि “तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी।  जीवेतरू शरदं शतम ।

बजरी की उम्र कोई 27-28 साल होगी और जीवन के इतने कठिन दिन उसने देख लिये हैं या देख रही है कि हमें सोच के भी घबराहट हो जाये।

सोंडवा तहसील से लगभग 05 किमी बाद नर्मदा के बैक वाॅटर में से नाँव से होते हुये लगभग 05 किमी और चल कर वो पहाड़ी आती है जिसपे बजरी का घरौंदा बना है।

मतलब यदि किसी काम से मेन लैंड पे जाना पड़ जाये तो वो भी एक टास्क है। जाने के पैसे तो लगते ही हैं पर जो कष्ट हैं वो अतुलनीय हैं।

पहाड़ी उतरो, नाँव पकड़ो उफनती नदी पार करो और फिर धरती पे आओ। फिर वहाँ से पैदल 05 किमी तहसील आॅफ़िस। काम हो जाएगा या नहीं ये कोई नहीं जानता। वहाँ डेटा और सिग्नल भी नहीं मिलते। काम कैसे हो?

पर हिम्मत है, जिजीविषा है, ज़मीन से प्यार है और हम रह रहे हैं। सभी आदिवासियों को जोहार है।

हम थोड़ा सा पढ़ लिख कर सबसे पहले अपनी ज़मीन अपने देश को छोड़कर बाहर जाकर सेटल होने के लिए तैयार हो जाते हैं पर आदिवासी अपने पुरखों की ज़मीन को छोड़ के जाना नहीं चाहता।

”जहां हमारे बाप-दादा सो रहे हैं उस ज़मीन में ही एक दिन हम भी सो जाएँगे।“  ये ही कहा तूर सिंह ने।

क्या पढ़ लिख जाने से ये भावना ख़त्म हो जाती है,? मै सोच में पड़ गया।

उनकी कष्ट सहने की ताक़त, हिम्मत और उसके बावजूद भी किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं, कोई शिकायत नहीं, शासन के प्रति अपशब्द नहीं प्रशासन के लिये कोई अल्टीमेटम नहीं। किस मिट्टी के बने हैं ये हमारे भाई बहन।

कोई अपेक्षा नहीं कोई शिकायत नहीं।

जब मैंने बजरी से केर सिंह से पूछा कि “क्या चाहिये आपको?

कोई माँग ही नहीं थी उनकी। सड़क-पानी-बिजली जैसी माँगे तो दूर पर जीवन से जुड़ी खाद्यान्न या दवाई की माँग भी नहीं थी।



क्या सच में इतना संतोषी भी कोई होता है?

मैंने सोचा कि बजरी और उसके परिवार मिलने आलिराजपुर के सभी प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर मै पेरियोत्तर फलिया जाऊँगा। प्रशासन के सभी विभागों के अधिकारी हमारे साथ थे इसलिये हमने बजरी व उसके पति का ग़रीबी रेखा कार्ड, आयुष्मान कार्ड, राशन हेतु पात्रता पर्ची आदि बनवा दी। शासन की सभी योजनाओं का लाभ उन्हें मिलें ये हमारी ज़िम्मेदारी है और हम आदिवासियों तक सभी सुविधाओं को पहुँचा के रहेंगे।

समाज कि अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का जब उद्धार होगा तभी वास्तविक ”अंत्योदय“ होगा। ये हमारा ध्येय भी है और संकल्प भी। - कलेक्टर जिला अलीराजपुर डाॅ. अभय अरविंद बेडेकर

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