वीर सेनानी टंट्या भील हमारी पीढ़ी के पथ प्रदर्शक-प्रो. आशा शुक्ला
आजादी के अमृत महोत्सव के कार्यक्रम-27 के अंतर्गत"जननायक टंट्या भील की युद्धनीति, चुनौतिया और जीवन दर्शन" विषय पर द्वितीय राष्ट्रीय वेबीनार आयोजित
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीर योद्धा टंट्या भील ने अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति दी- लक्ष्मीनारायण पयोधी
विश्वास के पर्याय तथा वनवासी सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानीयो के वे आश्रयदाता- लक्ष्मीनारायण पयोधी
निमाड़, मालवा और आसपास के इलाकों में उनकी शोर्य की जो कथाएं हैं वह आज भी लोककंठ में जीवित- प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा
मैं ही शेर हूं भले ही हम भूखे हैं लेकिन हम सुखी तो है, स्वतंत्र तो है किसी के गुलाम तो नहीं है उनका यही नारा था- वसंत निर्गुने
महू (इंदौर)। डॉ बी. आर. अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय, महू जननायक टंट्या भील पीठ द्वारा आयोजित पुण्यस्मरण के अवसर पर प्रो. आशा शुक्ला, कुलपति ब्राउस ने जननायक टंट्या भील की पुण्य स्मृति को याद करते हुए कहा कि वे हमारी पीढ़ी के वीर नायक और पथ प्रदर्शक हैं । डॉ. अजय वर्मा, कुलसचिव ब्राउज़ ने माल्यार्पण कर आज़ादी के सिपाही और भारतीय गौरव के मनीषी को याद किया । इस अवसर पर प्रो. देवाशीष देवनाथ , प्रो. सुरेंद्र पाठक, प्रो. सुनीता पाठक, डॉ. मनोज गुप्ता, श्री जितेंद्र पाटीदार सहित विश्वविद्यालय के कर्मचारी अधिकारी एवं शिक्षक , विद्यार्थी उपस्थित होकर जननायक टंट्या भील जी को सादर नमन किया । वीर सेनानी टंट्या भील ने एक राष्ट्र भक्त एवं स्वतंत्रता सेनानी के रूप में योगदान दिया। आज़ादी के लिए सदैव राष्ट्र एवं समाज को विखण्डित होने से बचाने वाला रहा है। बतौर अध्यक्षा प्रो. आशा शुक्ला ने कही । प्रो. आशा शुक्ला ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि डॉ. बी. आर. अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय स्वतंत्रता सेनानानियों के कार्यों, विचारों और उनके अक्षुण्य योगदान को समृद्ध करते हुए निरंतर गतिशील है। विश्वविद्यालय निरंतर वैश्विकपटल पर स्थापित होकर वीर सेनानानियों के कृतित्व एवं वैचारिकी के समावेशी चिंतन को जनमानस तक पहुँचाने के लिए संकल्पित है।
वीजवक्ता श्री लक्ष्मीनारायण पयोधी ने कहा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीर योद्धा टंट्या भील ने अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति दी थी । इंडियन रॉबिनहुड के रूप में प्रसिद्ध इस जननायक का नाम है टंट्या भील । महान योद्धा टंट्या को उनके ही सहयोगी गणपत ने राखी के बहाने भावनात्मक रिश्ते के जाल में फंसाकर 11 अगस्त 1879 को धोखे से अपने ही घर में पकड़वाया था। जंजीरों में जकड़े इस शेर को 26 सितम्बर 1879 को जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर के सामने प्रस्तुत किया गया और 4 दिसम्बर 1879 को फासी की सजा दी गई। भील जनजाति की परम्परा में संघर्ष और परोपकार नैसर्गिक गुण हैं। इस जनजाति के प्रमुख आराध्य नारहिंग देव भी संघर्ष और कल्याण के प्रतिरूप है। टंट्या भील अनेक बहनों के भाई और किशोरों के मामा थे संकट में जो भी उन्हें याद करता वो मदद के लिए उसके पास पहुंच जाते है वो विश्वास के पर्याय बन गए थे। वन में शरण के लिए आए सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानीयो के वे आश्रयदाता बन गए। टंट्या का वास्तविक उद्देश्य लुटमार नहीं बल्कि शोषको को दंडित करते हुए अंग्रेज शासन को कमजोर करना था यहीं उनकी युद्धनीति थी। टंट्या भील अपने इस उद्देश्य संघर्ष से आने वाली पीढ़ियों को मुक्ति का मूल मंत्र भी दे गए।
अतिथि वक्ता प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि जब देश के तमाम हिस्सों के लोग वह सारे के सारे लोग अंग्रेजों की शरण में चले गए थे उनके बीच मालवा, निमाड़ ,भीलांचल का एक अद्वितीय रत्न हमारे बीच में खड़ा होता है और खड़े होकर ललकार जब लगाता है तो उससे संकेत जाता है कि यह भूमि जो है यह भूमि हम लोगों की भूमि है और यह न केवल रक्षणीय है वरन इसके विकास के लिए भी हम लोग अपना योगदान देने के लिए तत्पर है । जननायक टंट्या की सबसे बड़ी शक्ति है कि उन्होंने 1857 की क्रांति के कई दशकों पहले आवाहन का स्वर मुखरित करना प्रारंभ कर दिया था । 1857 की जो क्रांति थी वह एक राष्ट्रीय क्रांति थी । निमाड़, मालवा और आसपास के इलाकों में उनकी शोर्य की जो कथाएं हैं वह आज भी लोककंठ में जीवित है जैसे हमारे देवता है, हमारे तमाम अवतारी पुरुष है, उसी श्रृंखला में जननायक टंट्या भील आज एक लोक देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं और इसके पीछे कारण उनकी अपनी जो अलौकिक शक्तियां है उनका जो जीवन दर्शन है और सबको समानता और बंधुत्व की दिशा में ले जाने की दृष्टि से जो उनका योगदान है वह अविस्मरणीय है । अतिथि वक्तव्य में श्री प्रवीण चौबे ने बतलाया कि हम देश के ह्रदय प्रदेश मध्य प्रदेश के निवासी होकर बड़े हर्षित व गौरवान्वित भी है, कि हमारे प्रदेश का और हमारे प्रदेश की एक जनपद निमाड़ का एक ऐसा रणबांकुरा, एक ऐसा क्रांतिकारी जो गुमनाम अपने जनपद में ही था लेकिन आज उनकी गौरव गाथा न केवल प्रदेश बल्कि देश में भी जानी जा रही है । मुख्य वक्ता पधारे श्री वसंत निर्गुने ने बताया कि टंट्या भील निरक्षर थे उन्होंने कभी भी स्कूल का मुंह नहीं देखा था तब इतनी बड़ी चेतना का जागृत हो जाना यह कैसे संभव हुआ जहां तक मेरा अनुभव है कि ऐसी चेतना के लिए न तो अक्षर की आवश्यकता, न शब्द की आवश्यकता होती है यह चेतना समाज व समाज के व्यवहार पर निर्भर करती है जहां से यह चेतना पैदा होती है । टंट्या के पिता एक छोटे से गांव के रहने वाले निमाड़ के खंडवा के गांव में रहने वाले थे वहां मालगुजारों की खेती किया करते थे टंट्या को उनके पिता बचपन में तीर धनुष चलाने के अचूक निशाने सिखाते थे टंट्या बड़ा ही साहसी व्यक्ति था । टंट्या भील कहते हैं कि मैं ही शेर हूं भले ही हम भूखे हैं लेकिन हम सुखी तो है, स्वतंत्र तो है किसी की गुलाम तो नहीं है उनका यही नारा था, यही उनकी युद्ध नीति थी। टंट्या भील जब अंग्रेजों की जेल तोड़कर जाते है तो सामने चुनौती देकर जाते हैं कि हिम्मत है तो मुझे एक बार और पकड़ कर दिखाओ टंट्या के नाम से अलग पुलिस भी बनती है कि टंट्या पुलिस लेकिन वह टंट्या को पकड़ नहीं पाती हैं। वह 1 घंटे के अंदर मिलो दूर दौड़ के चला जाता था। टंट्या कई तरह के स्वांग रच कर किसी को भी चकमा देकर भाग जाता था यही उसकी युद्ध नीति थी यही उसकी बुद्धि कौशल था।
डॉ. अजय दुबे, पीठ प्रभारी द्वारा कार्यक्रम का समन्वय और प्रस्तावना वक्तव्य में डॉ. बी. आर. अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय के संदर्भ में परिचय वक्तव्य दिया। इस कार्यक्रम की अकादमिक संयोजक प्रो. नीरु मिश्रा एवं प्रो. शैलेंद्र मणि त्रिपाठी तथा कुलसचिव डॉ. अजय वर्मा का योगदान सराहनीय रहा है। धन्यवाद ज्ञापन हेरिटेज सोसाईटी पटना के महानिदेशक डॉ अनंताशुतोष द्विवेदी द्वारा तथा कार्यक्रम का संचालन डॉ. अजय दुबे द्वारा किया गया कार्यक्रम में दोनों संस्थाओं के पदाधिकारियों तथा कर्मचारियों का सहयोग रहा। इस अवसर पर देश-विदेश के वरिष्ठ स्वतंत्रता चिन्तक, शिक्षक एवं शोधार्थी आभासी मंच से जुड़े रहे।
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