क्या अब अखबार बंद कर देना चाहिये- रमण रावल, पत्रकार

देश जब कोरोना के साये में लगभग तमाम दैनिक जरूरत की वस्तुओं की उपलब्धता से दूर हो गया है तब ऐसी क्या मजबूरी है कि दैनिक अखबारों का वितरण जारी है? क्या प्रबंधन केवल सूचना पहुंचाने की जिम्मेदारी के तहत ऐसा कर रहे हैं या नये जमाने की टीआरपी की होड़ में अपने नियमित स्टाफ से लेकर तो अभिकर्ता, वितरक, हॉकरों की लंबी श्रृंखला के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं? यह समय है, जब अखबार निकालने व पढऩे के मोह को तत्काल छोड़ देना चाहिये। खासकर तब जब मध्य प्रदेश के तीन प्रमुख शहर इंदौर, भोपाल, देवास में पत्रकारों को कोरोना वायरस ने चपेट में ले लिया है। 


कोरोना के गहराते काले बादलों का साया देश भर पर छा चुका है। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू , फिर 21 दिन के लॉक डाउन को लागू भी इसलिये किया गया कि लोगों के बीच परस्पर संपर्क न्यूनतम हो या बिलकुल न हो। चूंकि कोरोना वायरस का फैलाव श्वास प्रक्रिया के जरिये तेजी से हो रहा है, इसलिये जितना एक-दूसरे से दूर रहेेंगे, उतना ही इसके फैलने की संभावना कम होती जायेगी। इसका परिणाम यह होगा कि इस वायरस के आगे बढऩे का क्रम बाधित होगा और देश इसके दंश से मुक्त हो सकेगा। यूं यह इतना आसान बिलकुल नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में इसके प्रति जानकारी की कमी, गलतफहमियां, दुष्प्रचार और दुराभाव के कारण वायरस को अपनी प्रभाव क्षमता बढ़़ाने का भरपूर मौका हाथ लग गया। जहां लोग-बाग सब्जी, फल, दूध, किराणा के लिये रोज ब रोज घर की लक्ष्मण रेखा लांघने से बाज नहीं आ रहे, वहां अखबार वाले भी लोगों को जागरुक करने और समाज के प्रत्येक वर्ग तक अपनी बात पहुंचाने के प्रयास को जिम्मेदारी का नाम देकर इनका प्रकाशन अभी तक बंद नहीं  रहे, जजों कि चिंताजनक है।


यदि मप्र के संदर्भ में ही बात करें तो अखबार प्रकाशन की कच्ची सामग्री जैस-जैसे कम होती जा रही है, वैसे-वैसे इनका प्रसार तो कम होता जा रहा है, लेकिन इस वायरस के फैलाव को रोकने की मंशा के तहत प्रकाशन बंद करने की ओर रुझान नहीं दिखाया जा रहा । इंदौर-भोपाल जैसे शहरों में हॉकर ही करीब 5 हजार हैं। प्रेसकर्मी मिलाकर यह संख्या आसानी से 6 हजार हो सकती है। ये लोग लाखों घरों में पहुंच रहे हैं। बेशक, ये अखबार घरों के अंदर दूर से फेंककर चले जाते हैं, ,लेकिन ये आपस में रोजाना संपर्क में आ रहे हैं, उसका क्या?


सुबह के अखबारों का वितरण मुंह अंधेरे 4-5 बजे से शुरू हो जाता है। पहले शहर के 4-6 चुनिंदा स्थानों पर थोक में अखबार भेजे जाते हैं। वहां से फिर बड़े वितरक निश्चित तादाद में अखबार लेकर अपने इलाके में जाते हैं। उससे आगे हॉकर अपने हिस्से के अखबार लेेकर घर-घर डालने के लिये निकलते हैं। इस तरह तीन स्तर पर लोगों का सामूहिक संपर्क होता है। दुआ करें कि इनमें से कोई भी कोरोना के संक्रमण से पीडि़त न हो, लेकिन केवल दुआ से काम चल जाता तो इस देश ही क्या, समूची दुनिया में कोई भूखा, प्यासा, बेरोजगार, गरीब, कमजोर अभावग्रस्त और कोरोना पीडि़त न होता। क्या इतनी मामूली-सी बात अखबार प्रबंधन नहीं समझ सकते?


यूं भी अखबारों का प्रकाशन लंबे समय तक तो चल नहीं सकता, क्योंकि इसके लिये न्यूज प्रिंट, स्याही, प्लेट, पैकिंग मटेरियल, सप्लाय वाहन, उनके लिये पेट्रोल-डीजल आदि लगता है। चूंकि इनका प्रदाय भी बंद है तो जितना स्टॉक जिसके पास है, उतना ही प्रकाशन किया जा सकेगा । उसके बाद क्या ? तो बेहतर नहीं है कि हम सामूहिक जिम्मेदारी समझते हु्ए इसे अभी ही रोक दें। इसका यह मतलब भी नहीं है कि इससे आम जन को सूचनायें नहीं दी जा सकेंगी। यह जमाना सूचना क्रांति, तकनीक क्रांति का है। मोबाइल, इंटरनेट,टीवी, कंप्यूटर,लेपटॉप, व्हाट्सएप्प, वेब पोर्टल, फेस बुक जैसे संचार माध्यमों की भरमार के युग में सूचना संप्रेषण कतई कठिन नहीं है। जब हालात सामान्य हो और परस्पर संपर्क एतराज लायक अवस्था में न रहे, तब अखबारों का प्रकाशन शुरू किया जा सकेगा ही। सरकार को भी इस बारे में प्रबंधन से चर्चा कर हजारों लोगों के हित मेें कदम उठाना चाहिये।


कृपया, वे खुद को स्वास्थ्य महकमे, पुलिस, प्रशासन के समकक्ष न रखें, क्योंकि वे हर हाल में समाज के लिये अपरिहार्य हैं। इनकी सेवाओं का कोई विकल्प नहीं है, जबकि सूचना तंत्र के अनेक विकल्प मौजूद हैं।


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