यूनिफॉर्म सिविल कोड मामले में फायरब्रांड अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय मैं लिखा प्रधानमंत्री को खुला पत्र

 


आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

इस पत्र के माध्यम से आपका ध्यान संविधान (सम विधान) की आत्मा अर्थात आर्टिकल 44 की तरफ आकृष्ट करना चाहता हूँ जिसे लागू करने बारे देश के कई हाई कोर्ट ही नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट भी सात बार कह चुका है। 

विस्तृत चर्चा के बाद 23.11.1948 को आर्टिकल 44 संविधान में जोड़ा गया था और सरकार को समान नागरिक संहिता लागू करने का निर्देश दिया गया था लेकिन संविधान निर्माताओं का वह सपना आजतक अधूरा है

समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जुलाई 2022 में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक विस्तृत आदेश दिया था और उसके बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी समान नागरिक संहिता का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए एक समिति बनाने का सुझाव दिया था। समान नागरिक संहिता का अर्थ है  कि बेटे-बेटी की विवाह की न्यूनतम उम्र एक समान हो, विवाह-विच्छेद का नियम सबके लिए एक समान हो, गुजारा-भत्ता पाने का अधिकार सभी बहन बेटियों को मिले, गोद लेने और संरक्षकता का अधिकार एक समान हो तथा वसीयत विरासत और संपत्ति का अधिकार सभी बहन बेटियों के लिए एक समान हो।

 हमारा देश वेद-पुराण गीता-रामायण या बाइबिल-कुरान से नहीं बल्कि संविधान से चलता है और संविधान (सम+विधान) का अर्थ है ऐसा विधान जो सब पर समान रूप से लागू हो। बेटा हो या बेटी, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई, माँ के पेट में बच्चा नौ महीने ही रहता है और प्रसव पीड़ा भी बेटा-बेटी के लिए एक समान होती है इससे स्पष्ट है कि महिला-पुरुष में भेदभाव भगवान, खुदा या जीसस ने नहीं बल्कि इंसान ने किया है। समाज में महिला-पुरुष में जो भेदभाव व्याप्त है वह रीति नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा शुरू की गई कुरीति है, धार्मिक प्रथा नहीं बल्कि इंसान द्वारा द्वारा शुरू की गई कुप्रथा है और कुरीतियों और कुप्रथाओं को धर्म, मजहब या रिलिजन से जोड़ना बिलकुल गलत है।  

आर्टिकल 14 के अनुसार हम सब समान हैं। आर्टिकल 15 जाति धर्म भाषा क्षेत्र जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। आर्टिकल 19 सभी नागरिकों को पूरे देश में कहीं पर भी जाने, रहने, बसने और रोजगार शुरू करने का अधिकार देता है। संविधान को यथारूप पढ़ने से स्पष्ट है कि समता, समानता, समरसता, समान अवसर तथा समान अधिकार भारतीय संविधान की आत्मा है। कुछ लोग आर्टिकल 25 में प्रदत्त धार्मिक आजादी की दुहाई देकर 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का विरोध करते है लेकिन वास्तव में ऐसे लोग समाज को गुमराह कर रहे हैं। आर्टिकल 25 की तो शुरुआत ही होती है- ‘सब्जेक्ट टू पब्लिक ऑर्डर, हेल्थ एंड मोरैलिटी’ अर्थात रीति और प्रथा का पालन करने का अधिकार है लेकिन किसी भी प्रकार की 'कुप्रथा, कुरीति, पाखंड और भेदभाव' को आर्टिकल 25 का संरक्षण प्राप्त नहीं है।

अंग्रेजों द्वारा 1860 में बनाई गई भारतीय दंड संहिता, 1961 में बनाया गया पुलिस एक्ट, 1872 में बनाया गया एविडेंस एक्ट और 1908 में बनाया गया सिविल प्रोसीजर कोड सहित सभी कानून बिना किसी भेदभाव के सभी भारतीयों पर समान रूप से लागू हैं। पुर्तगालियों द्वारा 1867 में बनाया गया पुर्तगाल सिविल कोड भी गोवा के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू है लेकिन विस्तृत चर्चा के बाद बनाया गया आर्टिकल 44 अर्थात समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किया गया और एक ड्राफ्ट भी नहीं बनाया गया। अब तक 125 बार संविधान में संशोधन किया जा चुका है और 5 बार तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी पलट दिया गया लेकिन 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का एक मसौदा भी नहीं तैयार किया गया, परिणाम स्वरूप इससे होने वाले लाभ के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। समान नागरिक संहिता शुरू से भाजपा के मेनिफेस्टो में है इसलिए भाजपा समर्थक इसका समर्थन करते हैं और भाजपा विरोधी इसका विरोध करते हैं लेकिन सच्चाई तो यह है कि समान नागरिक संहिता के लाभ के बारे में न तो इसके अधिकांश समर्थकों को पता है और न तो इसके विरोधियों को, इसलिए समान नागरिक संहिता का एक ड्राफ्ट तत्काल बनाना नितांत आवश्यक है।


समान नागरिक संहिता (भारतीय नागरिक संहिता) लागू नहीं होने से अनेक समस्याएं हैं:

1.    मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहुविवाह करने की छूट है लेकिन अन्य धर्मो में 'एक पति-एक पत्नी' का नियम बहुत कड़ाई से लागू है। बाझपन या नपुंसकता जैसा उचित कारण होने पर भी हिंदू ईसाई पारसी के लिए दूसरा विवाह अपराध है और IPC की धारा 494 में 7 वर्ष की सजा का प्रावधान है इसीलिए कई लोग दूसरा विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं. भारत जैसे सेक्युलर देश में चार निकाह जायज है जबकि इस्लामिक देश पाकिस्तान में पहली बीवी की इजाजत के बिना शौहर दूसरा निकाह नहीं कर सकता हैं. 'एक पति - एक पत्नी' किसी भी प्रकार से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि "सिविल राइट, ह्यूमन राइट और राइट टू डिग्निटी" का मामला है इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए।

2.    विवाह की न्यूनतम उम्र भी सबके लिए समान नहीं है। मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है और माहवारी शुरू होने पर लड़की को निकाह योग्य मान लिया जाता है इसीलिए 9 वर्ष की उम्र में भी लड़कियों का निकाह किया जाता है जबकि अन्य धर्मो मे लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है. विश्व स्वास्थ्य संगठन कई बार कह चुका कि 20 वर्ष से पहले लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होती है और 20 वर्ष से पहले गर्भधारण करना जच्चा-बच्चा दोनों के लिए अत्यधिक हानिकारक है, लड़का हो या लड़की, 20 वर्ष से पहले दोनों ही मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होते हैं, 20 वर्ष से पहले तो बच्चे ग्रेजुएशन भी नहीं कर पाते हैं और 20 वर्ष से पहले बच्चे आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर नहीं होते हैं इसलिए विवाह की न्यूनतम उम्र सबके लिए एक समान 21 वर्ष करना आवश्यक है। 'विवाह की न्यूनतम उम्र' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए।

3.    तीन तलाक अवैध घोषित होने के बावजूद तलाक-ए-हसन एवं तलाक-ए-अहसन आज भी मान्य है और इसमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है और केवल 3 महीने प्रतीक्षा करना है लेकिन अन्य धर्मों में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद किया जा सकता है. हिंदू ईसाई पारसी दंपति आपसी सहमति से भी मौखिक विवाह विच्छेद की सुविधा से वंचित है. मुसलमानों में प्रचलित तलाक का न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण मुस्लिम बेटियों को हमेशा भय के वातावरण में रहना पड़ता है. तुर्की जैसे मुस्लिम बाहुल्य देश में भी किसी तरह का मौखिक तलाक मान्य नहीं है इसलिए तलाक का आधार भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।

4.    मुस्लिम कानून में मौखिक वसीयत एवं दान मान्य है लेकिन अन्य धर्मों में केवल पंजीकृत वसीयत एवं दान ही मान्य है. मुस्लिम कानून मे एक-तिहाई से अधिक संपत्ति का वसीयत नहीं किया जा सकता है जबकि अन्य धर्मों में शत प्रतिशत संपत्ति का वसीयत किया जा सकता है. वसीयत और दान किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।

5.    मुस्लिम कानून में 'उत्तराधिकार' की व्यवस्था अत्यधिक जटिल है, पैतृक संपत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है, अन्य धर्मों में भी विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं और उत्तराधिकार के कानून बहुत जटिल है, विवाह के बाद पुत्रियों के पैतृक संपत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है और विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं.  'उत्तराधिकार' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।

6.    विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार भी सबके लिए एक समान नहीं है। व्याभिचार के आधार पर मुस्लिम अपनी बीबी को तलाक दे सकता है लेकिन बीवी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती है। हिंदू पारसी और ईसाई धर्म में तो व्याभिचार तलाक का ग्राउंड ही नहीं है। कोढ़ जैसी लाइलाज बीमारी  के आधार पर हिंदू और ईसाई धर्म में तलाक हो सकता है लेकिन पारसी और मुस्लिम धर्म में नहीं। कम उम्र में विवाह के आधार पर हिंदू धर्म में विवाह विच्छेद हो सकता है लेकिन पारसी ईसाई मुस्लिम में यह संभव नहीं है।  'विवाह विच्छेद' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।

7.    गोद लेने का नियम भी हिंदू मुस्लिम पारसी ईसाई के लिए अलग अलग है। मुस्लिम महिला गोद नहीं ले सकती है और अन्य धर्मों में भी पुरुष प्रधानता के साथ गोद लेने की व्यवस्था लागू है.  'गोद लेने का अधिकार' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।

विवाह की न्यूनतम उम्र, विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार, गुजारा भत्ता, गोद लेने का नियम, विरासत का नियम और संपत्ति का अधिकार सहित उपरोक्त सभी विषय सिविल राइट से सम्बन्धित हैं जिनका न तो मजहब से किसी तरह का संबंध है और न तो इन्हें धार्मिक या मजहबी व्यवहार कहा जा सकता है लेकिन आजादी के 74 साल बाद भी धर्म या मजहब के नाम पर महिला-पुरुष में भेदभाव जारी है. हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 के माध्यम से 'समान नागरिक संहिता' की कल्पना किया था ताकि सबको समान अधिकार और समान अवसर मिले और देश की एकता अखंडता मजबूत हो लेकिन वोट बैंक राजनीति के कारण 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का एक ड्राफ्ट भी नहीं बनाया गया. 



समान नागरिक संहिता हमारे संविधान की आत्मा है और इसके एक नहीं अनेक लाभ हैं:

1.    भारतीय दंड संहिता के तर्ज पर देश के सभी नागरिकों के लिए एक भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से देश और समाज को सैकड़ों जटिल, बेकार और पुराने कानूनों से मुक्ति मिलेगी.

2.    अलग-2 धर्म के लिए लागू अलग-2 ब्रिटिश कानूनों से सबके मन में हीन भावना व्याप्त है इसलिए सबके लिए एक 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू होने से हीन भावना से मुक्ति मिलेगी.

3.    ‘एक पति-एक पत्नी’ का नियम सब पर समान रूप से लागू होगा और बांझपन या नपुंसकता जैसे अपवाद का लाभ एक समान रूप से मिलेगा चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.

4.    विवाह-विच्छेद का एक सामान्य नियम सबके लिए लागू होगा. विशेष परिस्थितियों में मौखिक तरीके से विवाह विच्छेद की अनुमति भी सभी को होगी चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.

5.    पैतृक संपति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को एक समान अधिकार प्राप्त होगा चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई और संपत्ति को लेकर धर्म जाति क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी, 

6.    विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.

7.    वसीयत दान धर्मजत्व संरक्षकता बंटवारा गोद के संबंध में सभी पर एक समान कानून लागू होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई और धर्म जाति क्षेत्र लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी.

8.    राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र एवं एकीकृत कानून मिल सकेगा और सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.

9.    जाति धर्म क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग कानून होने से पैदा होने वाली अलगाववादी मानसिकता समाप्त होगी और एक अखण्ड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में हम तेजी से आगे बढ़ सकेंगे.

10.अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग कानून होने के कारण अनावश्यक मुकदमे में उलझना पड़ता है. सबके लिए एक नागरिक संहिता होने से न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा

11.भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से रूढ़िवाद कट्टरवाद सम्प्रदायवाद क्षेत्रवाद भाषावाद समाप्त होगा, वैज्ञानिक सोच विकसित होगी तथा बेटियों के अधिकारों मे भेदभाव खत्म होगा. सच्चाई तो यह है कि इसका फायदा बेटियों को ज्यादा नहीं मिलेगा क्योंकि हिंदू मैरिज ऐक्ट में महिला-पुरुष को लगभग समान अधिकार पहले से ही प्राप्त है. इसका सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिम बेटियों को मिलेगा क्योंकि शरिया कानून में उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता है.

आर्टिकल 37 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है. जिस प्रकार संविधान का पालन करना सभी नागरिकों की फंडामेंटल ड्यूटी है उसी प्रकार संविधान को शत प्रतिशत लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है. किसी भी सेक्युलर देश में धार्मिक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं होता है लेकिन हमारे यहाँ आज भी हिंदू मैरिज एक्ट, पारसी मैरिज एक्ट और ईसाई मैरिज एक्ट लागू है, जब तक भारतीय नागरिक संहिता लागू नहीं होगी तब तक भारत को सेक्युलर कहना सेक्युलर शब्द को गाली देना है. यदि गोवा के सभी नागरिकों के लिए एक 'समान नागरिक संहिता' लागू हो सकती है तो देश के सभी नागरिकों के लिए एक 'भारतीय नागरिक संहिता' क्यों नहीं लागू हो सकती है?

समान नागरिक संहिता लागू होने से आर्टिकल 25 के अंतर्गत प्राप्त मूलभूत धार्मिक अधिकार जैसे पूजा, नमाज या प्रार्थना करने, व्रत या रोजा रखने तथा मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा का प्रबंधन करने या धार्मिक स्कूल खोलने, धार्मिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करने या विवाह-निकाह की कोई भी पद्धति अपनाने या मृत्यु पश्चात अंतिम संस्कार के लिए कोई भी तरीका अपनाने में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं होगा. जिस दिन 'भारतीय नागरिक संहिता' का एक ड्राफ्ट बनाकर सार्वजनिक कर दिया जाएगा और आम जनता विशेषकर बहन बेटियों को इसके लाभ के बारे में पता चल जाएगा, उस दिन कोई भी इसका विरोध नहीं करेगा. सच तो यह है कि जो लोग समान नागरिक संहिता के बारे में कुछ नहीं जानते हैं वे ही इसका विरोध कर रहे हैं.

जाति धर्म भाषा क्षेत्र और लिंग आधारित अलग-अलग कानून 1947 के विभाजन की बुझ चुकी आग में सुलगते हुए धुएं की तरह हैं जो विस्फोटक होकर देश की एकता को कभी भी खण्डित कर सकते हैं इसलिए इन्हें समाप्त कर एक 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू करना न केवल धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए बल्कि देश की एकता-अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भी अति आवश्यक है. दुर्भाग्य से 'भारतीय नागरिक संहिता' को हमेशा तुष्टीकरण के चश्मे से देखा जाता रहा है.


आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार से कानून बनाने के लिए तो नहीं कह सकता है लेकिन वह अपनी भावना व्यक्त कर सकता है और बार-बार यही कर रहा है. मेरा व्यक्तिगत मत है कि कोर्ट के आदेश की प्रतीक्षा करने की बजाय सरकार को विकसित देशों की 'समान नागरिक संहिता' का अध्ययन कर दुनिया का सबसे अच्छा और प्रभावी 'सिविल कोड' लागू करना चाहिए. 

बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था- ”व्यवहारिक रूप से इस देश में एक सिविल संहिता लागू है जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं. केवल विवाह और उत्तराधिकार का क्षेत्र है जहां एक समान कानून लागू नहीं है. यह बहुत छोटा सा क्षेत्र है जिस पर हम समान कानून नहीं बना सके हैं इसलिए हमारी इच्छा है कि अनुच्छेद 35 को संविधान का भाग बनाकर सकारात्मक बदलाव लाया जाए. यह आवश्यक नहीं है कि उत्तराधिकार के कानून धर्म द्वारा संचालित हों. धर्म को इतना विस्तृत और व्यापक क्षेत्र क्यों दिया जाए कि वह संपूर्ण जीवन पर कब्जा कर ले और विधायिका को इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने से रोके”

के.एम. मुंशी ने कहा था कि- “हम एक प्रगतिशील समाज हैं और ऐसे में धार्मिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप किए बिना हमें देश को एकीकृत करना चाहिए, बीते कुछ वर्षों में धार्मिक क्रियाकलाप ने जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने दायरे में ले लिया है, हमें ऐसा करने से रोकना होगा और कहना होगा कि विवाह उपरांत मामले धार्मिक नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष कानून के विषय हैं. आर्टिकल 35 इसी बात पर बल देता है. मैं अपने मुस्लिम मित्रों से कहना चाहता हूं कि जितना जल्दी हम जीवन के पृथक्करण दृष्टिकोण को भूल जाएंगे, देश और समाज के लिए उतना ही अच्छा होगा. धर्म उस परिधि तक सीमित होना चाहिए जो नियम: धर्म की तरह दिखता है और शेष जीवन इस तरह से नियमित, एकीकृत और संशोधित होना चाहिए कि हम जितनी जल्दी संभव हो, एक मजबूत-एकीकृत राष्ट्र में निखर सके” (आर्टिकल 44 मूल रूप में आर्टिकल 35 था अर्थात मौलिक अधिकार था लेकिन उस समय ड्राफ्ट बनाने का समय नहीं था)

कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था कि- “कुछ लोगों का कहना है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड बन जाएगा तो धर्म खतरे में होगा और दो समुदाय मैत्रियता के साथ नहीं रह पाएंगे. इस अनुच्छेद का उद्देश्य ही मैत्रियता बढ़ाना है. समान नागरिक संहिता मैत्रियता को समाप्त नहीं मजबूत करेगी. उत्तराधिकार या इस प्रकार के अन्य मामलों में अलग व्यवस्था ही भारतीय नागरिकों में भिन्नता पैदा करती हैं. समान नागरिक संहिता का मूल उद्देश्य विवाह उत्तराधिकार के मामलों में एक समान सहमति तक पहुंचने का प्रयास करना है. जब ब्रिटिश सत्ता पर काबिज हुए तो उन्होंने इस देश के सभी नागरिकों, चाहे हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई, के लिए समान रूप से लागू होने वाली 'भारतीय दंड संहिता' लागू किया था. क्या तब मुस्लिम अपवाद बने रह पाए और क्या वे आपराधिक कानून की एक व्यवस्था को लागू करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर सके? भारतीय दंड संहिता हिंदू-मुसलमान पर एक समान रूप से लागू होता है. यह कुरान द्वारा नहीं बल्कि विधिशास्त्र द्वारा संचालित है. इसी तरह संपत्ति कानून भी इंग्लिश विधिशास्त्र से लिए गए हैं”.

शाहबानो केस (1985) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- “यह अत्यधिक दुख का विषय है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 मृत अक्षर बनकर रह गया है. यह प्रावधान करता है कि सरकार सभी नागरिकों के लिए एक 'समान नागरिक संहिता' बनाए लेकिन इसे बनाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है, समान नागरिक संहिता विरोधाभासी विचारों वाले कानूनों के प्रति पृथक्करणीय भाव को समाप्त कर राष्ट्रीय अखंडता के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयोग करेगा”.

सरला मुद्गल केस (1995) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- “संविधान के अनुच्छेद 44 के अंतर्गत व्यक्त की गई संविधान निर्माताओं की इच्छा को पूरा करने में सरकार और कितना समय लेगी? उत्तराधिकार और विवाह को संचालित करने वाले परंपरागत हिंदू कानून को बहुत पहले ही 1955-56 में संहिताकरण करके अलविदा कर दिया गया है. देश में समान नागरिक संहिता को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित करने का कोई औचित्य नहीं है. कुछ प्रथाएं मानवाधिकार एवं गरिमा का अतिक्रमण करते हैं. धर्म के नाम पर मानव अधिकारों का गला घोटना स्वराज्य नहीं बल्कि निर्दयता है, इसलिए एक समान नागरिक संहिता का होना निर्दयता से सुरक्षा प्रदान करने और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को मजबूत करने के लिए नितांत आवश्यक है”.

जॉन बलवत्तम केस (2003) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा- “यह दुख की बात है कि अनुच्छेद 44 को आज तक लागू नहीं किया गया, संसद को अभी भी देश में एक समान नागरिक संहिता लागू के लिए कदम उठाना है. समान नागरिक संहिता वैचारिक मतभेदों को दूर कर देश की एकता-अखंडता को मजबूत करने में सहायक होगी.”

शायरा बानो केस (2017) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- “हम सरकार को निर्देशित करते हैं कि वह उचित विधान बनाने पर विचार करें. हम आशा करते हैं कि वैश्विक पटल पर और इस्लामिक देशों में शरीयत में हुए सुधारों को ध्यान में रखते हुए एक कानून बनाया जाएगा. जब ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय दंड संहिता के माध्यम सबके लिए एक कानून लागू किया जा सकता है तो भारत के पीछे रहने का कोई कारण नहीं है”.

जोस पाउलो केस (2019) में सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि समान नागरिक संहिता को लेकर सरकार की तरफ से कोई प्रयास नहीं किया गया. कोर्ट ने अपने गोवा का उदाहरण दिया और कहा- “1956 में हिंदू लॉ बनने के 63 साल बाद भी पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया.

डॉ राम मनोहर लोहिया जी ने कहा था- “एक ही विषय पर हिंदू मुस्लिम ईसाई पारसी के लिए अलग अलग कानून, धर्मनिरपेक्षता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों और देश की एकता-अखंडता के लिए अत्यधिक खतरनाक है”

अटल बिहारी वाजपेई जी ने कहा था- “मेरी समझ में नहीं आ रहा है, जब संविधान निर्माताओं ने विवाह के लिए एक कानून बनाने की सिफारिश की है और कहा है कि राज्य इसकी तरफ ध्यान देगा, तो क्या वे सांप्रदायिक थे, क्या यह सांप्रदायिक मुद्दा है? जब क्रिमिनल लॉ एक है तो सिविल लॉ क्यों नहीं एक हो सकता है?”. 

अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व सदस्य ताहिर महमूद कहते हैं- “परंपरागत कानून के लिए धार्मिक राजनीतिक दबाव बनाने की बजाय मुसलमानों को समान नागरिक संहिता की मांग करना चाहिये.


माननीय प्रधानमंत्री जी,

23.11.1948 को आर्टिकल 44 संविधान में जोड़ा गया था और सरकार को समान नागरिक संहिता लागू करने का निर्देश दिया गया था. संविधान निर्माताओं की हार्दिक इच्छा थी कि अलग-अलग धर्म के लिए अलग-अलग कानून के स्थान पर 'भारतीय दंड संहिता' की तरह सबके लिए धर्म भाषा क्षेत्र लिंग निरपेक्ष एक 'भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होना चाहिए. इसलिए आपसे निवेदन है कि इस वर्ष संविधान दिवस (26 नवंबर) को आर्टिकल 44 को लागू करें।

धन्यवाद और आभार

अश्विनी उपाध्याय

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