आइए जानते हैं मध्य प्रदेश की ऐतिहासिक नगरी महेश्वर को

 महेश्वर मध्य प्रदेश के खरगौन ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर तथा प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। यह नर्मदा नदी के किनारे पर बसा है। प्राचीन समय में यह शहर होल्कर राज्य की राजधानी था। महेश्वर धार्मिक महत्त्व का शहर है तथा वर्ष भर लोग यहाँ घूमने आते रहते हैं। यह शहर अपनी 'महेश्वरी साड़ियों' के लिए भी विशेष रूप से प्रसिद्ध रहा है। महेश्वर को 'महिष्मति' नाम से भी जाना जाता है। महेश्वर का हिन्दू धार्मिक ग्रंथों 'रामायण' तथा 'महाभारत' में भी उल्लेख मिलता है। देवी अहिल्याबाई होल्कर के कालखंड में बनाये गए यहाँ के घाट बहुत सुन्दर हैं और इनका प्रतिबिम्ब नर्मदा नदी के जल में बहुत ख़ूबसूरत दिखाई देता है। महेश्वर इंदौर से सबसे नजदीक है।

महेश्वर शहर मध्य प्रदेश के खरगौन ज़िले में स्थित है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 3 (आगरा-मुंबई राजमार्ग) से पूर्व में 13 किलोमीटर अन्दर की ओर बसा हुआ है तथा मध्य प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर से 91 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह नगर नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर स्थित है। शहर आज़ादी से पहले होल्कर वंश के मराठा शासकों के इंदौर राज्य की राजधानी था। इस शहर का नाम 'महेश्वर' भगवान शिव के ही एक अन्य नाम 'महेश' के आधार पर पड़ा है। अतः महेश्वर का शाब्दिक अर्थ है- "भगवान शिव का घर"

इतिहास...............

महेश्वर प्रसिद्ध नगरों में से एक रहा है। निमाड़ एवं महेश्वर का इतिहास लगभग 4500 वर्ष पुराना है। रामायण काल में महेश्वर को 'माहिष्मती' के नाम से जाना जाता था। उस समय 'महिष्मति' हैहय वंश के बलशाली शासक सहस्रार्जुन की राजधानी हुआ करता था, जिसने बलशाली लंका के राजा रावण को भी परास्त किया था। महाभारत काल में यह शहर अनूप जनपद की राजधानी बनाया गया था। सहस्रार्जुन द्वारा ऋषि जमदग्नि को प्रताड़ित करने के कारण उनके पुत्र भगवान परशुराम ने सहस्त्रार्जुन का वध किया था। कालांतर में यह शहर होल्कर वंश की महान् महारानी देवी अहिल्याबाई की राजधानी रहा।

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प्राचीन नाम 'माहिष्मति'...........

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महेश्वर को प्राचीन समय में 'माहिष्मति' कहा जाता था। तब माहिष्मति चेदि जनपद की राजधानी हुआ करती थी, जो नर्मदा नदी के तट पर स्थित थी। महाभारत के समय यहाँ राजा नील का राज्य था, जिसे सहदेव ने युद्ध में परास्त किया था.

'ततो रत्नान्युपादाय पुरीं माहिष्मतीं ययौ।

तत्र नीलेन राज्ञा स चक्रे युद्धं नरर्षभ:।'

राजा नील महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़ता हुआ मारा गया था। बौद्ध साहित्य में माहिष्मति को दक्षिण अवंति जनपद का मुख्य नगर बताया गया है। बुद्ध काल में यह नगरी समृद्धिशाली थी तथा व्यापारिक केंद्र के रूप में विख्यात थी। तत्पश्चात् उज्जयिनी की प्रतिष्ठा बढ़ने के साथ-साथ इस नगरी का गौरव कम होता गया। फिर भी गुप्त काल में 5वीं शती तक माहिष्मति का बराबर उल्लेख मिलता है। कालिदास ने 'रघुवंश' में इंदुमती के स्वयंवर के प्रसंग में नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मति का वर्णन किया है और यहाँ के राजा का नाम 'प्रतीप' बताया है..........

'अस्यांकलक्ष्मीभवदीर्घबाहो माहिष्मतीवप्रनितंबकांचीम् प्रासाद-जालैर्जलवेणि रम्यां रेवा यदि प्रेक्षितुमस्तिकाम:।'

चोली महेश्वर..............

महेश्वर को 'चोली-महेश्वर' भी कहा जाता है, प्राचीन स्थल माहेश्वरी पर स्थित यह स्थान हैहय राजा अर्जुन कर्तवीर्य (लगभग 200 ई.पू.) की राजधानी था, जिसका उल्लेख रामायण और महाभारत और कुछ पुराणों में भी मिलता है। महेश्वर भारत के उन कुछ विशिष्ट नगरों में से है, जिनका ईस्वी सन् के आरंभ से आधुनिक काल तक का सुप्रमाणित इतिहास उपलब्ध है, विशेषज्ञों द्वारा की गई खुदाई से विभिन्न संस्कृतियों का पता चला है, जो आरंभिक पाषाण युग से 18वीं शताब्दी तक के हैं। आरंभिक और मध्य पाषाण युग के लगभग 400 पुरापाषाण युग के औज़ार यहां पाए गए हैं। खुदाई के आधार पर इसे महाकाव्यों में वर्णित माहिष्मती नामक स्थान के रूप में पहचाना गया है। नर्मदा नदी से क़िले, मंदिरों और अहिल्याबाई के महल तक जाते हुए सीढ़ीदार घाट हैं।

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अहिल्याबाई ने 1767 में महेश्वर को अपनी राजधानी के रूप में चुना था। नर्मदा नदी के दूसरे तट पर नवदाटोली का प्राचीन स्थल है, जहां खुदाई में मिट्टी के रंगीन बर्तन और अन्य कलाशिल्प प्राप्त हुए हैं। यह शहर कृषि विपणन केंद्र है, जो व्यापार और खुदरा बाज़ार के लिए महत्त्वपूर्ण है। यहां की हथकरघा साड़ियां और पीतल से बने घर में काम आने वाले बर्तन भी प्रसिद्ध हैं

ऐतिहासिक-साहित्यिक पृष्ठभूमि.............

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हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटक 'चंद्रगुप्त मौर्य' में लिखा है कि राजस्थान के पंवार कुल के मौर्य नृपतिगण ने इतिहास प्रसिद्ध बड़े-बड़े कार्य, मौर्य काल के परमार कभी उज्जयिनी की ओर तो कभी राजस्थान की ओर अपनी राजधानी बनाते थे। उसी दीर्घकाल व्यापिनी अस्थिरता में मौर्य उसी तरह अपनी प्रतिभा बनाये थे, मौर्य कुल के महेश्वर नामक राजा ने विक्रम सवत के 600 वर्ष बाद सहस्त्रार्जुन किर्तिक वीर्याजुन की महिष्मति को नर्मदा तट पर फिर से बसाया और उसका नाम महेश्वर रखा।

विक्रमशिला विश्वविद्यालय उज्जैन के डॉ. हरिन्द्रभूषण जैन के अनुसार महिष्मति के और भी नाम थे जैसे- मत्स्य तथा पलिश्वर तीर्थ, अरबी ग्रन्थों में इसे मुंह मोहर बताया है, जिसे पाली भाषा में महिश्मती कहा गया है, संस्कृत में महिश्मती तथा महेश्वरी नगरी और अपभ्रंश में महेश्वरी तथा हिन्दी में महेश्वर।

महेश्वर नगर के मध्य भाग की बसाहट पाषाण काल के पूर्व की प्रतीत होती है। जैसा कि नर्मदा तौडी से प्राप्त पुरातत्वीय वस्तुएं दर्शाती हैं। महेश्वर का भारतीय इतिहास शास्त्रों में महिश्मति के रूप में संदर्भ मिलता है, पुराणों में उल्लेख हैं कि महिष्मति की स्थापना राजा यदु के पुत्र मचकुंद ने की थी। यहां पर आठवीं सदी में शंकराचार्य के भारत भ्रमण पर विद्या पंडित मंडप मिश्र विदूषी शारदा शास्त्री से शास्त्रार्थ हुआ था। सांची के स्तूप में संकलित बोध साहित्य सिक्कों एवं दानपत्रों में भी महिष्मति का उल्लेख किया गया।

वर्ष 1952-1954 में महेश्वर क्षेत्र में पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई से इस क्षेत्र के बसाव प्रतिरूप के कालानुक्रमिक इतिहास का निम्नानुसार पता चला है:-

पुरा पाषाण युग में प्रचलित पत्थर के औजार।

मध्य पाषाण युगीय औजार।

ईसा के पूर्व के प्रथम दिव्ययुग के पूर्व मध्यकालीन चित्रित बर्तन (भांडे)।

पांचवी सदी की संस्कृति के सिक्के तथा काले एवं लाल रंग के बर्तन।

10वीं सदी से 19वीं सदी के सिक्के।

उसके उपरांत कुछ कतिपय क्षेत्रों में खुदाई में आने कोई पुरातत्व अवशेष उपलब्ध नहीं हो सके। यहां परमार वंशीय एवं दूसरे हर्ष वंशीय युग के पूर्व अथवा पूर्व मुग़लकालीन आदिवासीकाल का भी पता नहीं चलता है तथा मुग़लकालीन चमकदार बर्तनों के रूप में मध्ययुगीन पुरावशेष यहां प्राप्त हुए है। 17वीं शताब्दी में महेश्वर के भव्य क़िले का निर्माण हुआ था। मुग़ल शासकों नें यहां अधिक समय अधिवास नहीं किया, यह नगर 18वीं शताब्दी के पूर्व मराठा राजाओं द्वारा व्यवस्थित कर स्थापित किया गया था। प्रशासनिक दृष्टि से यह नगर महल में समाविष्ट था, जिसे महेश्वर चोली के नाम से भी जाना है।

वर्ष 1767 से 1795 के कालखण्ड महारानी अहिल्याबाई होल्कर के शासन काल में महेश्वर नगर को अपनी कलात्मक तथा संस्कृतिक धरोहर को विकसित करने का अद्भुत संरक्षण प्राप्त हुआ। औरंगजेब के शासन काल में नष्ट किये गये हिन्दू मंदिरों को महारानी अहिल्याबाई ने अपने शासनकाल में इनका पुर्ननिर्माण कराया। उनकी धार्मिक प्रकृति के कारण यहां अनेकों मंदिरों का निर्माण किया गया। उनका अनुकरण करते करते परवर्ती होल्कर नरेशों के और उनके सभासदों आदि ने यहां मंदिर, सुन्दरघाट एवं छतरियां बनवाई गई। कुछ मंदिर यो यहां परमार काल (10 वीं सदी) से पूर्व के निर्माण है। जिनमें कालेश्वर, ज्वालेश्वर, वृद्धकालेश्वर, केशव मंदिर, चतुर्भुजन मंदिर, बाणेश्वर तथा मातर्गेश्वर, शिवालय के नाम उल्लेखनीय हैं।

भौगोलिक स्थिति...........

महेश्वर भौगोलिक दृष्टि से 22°11" उत्तरी अक्षांश तथा 75°36" पूर्वी देशांतर रेखा पर समुद्र सतह से 159 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। पतित पावन माँ रेवा के उत्तरी तट पर स्थित ऐतिहासिक एवं पुरातन महेश्वर नगर, बड़वाह-धामनोद मार्ग पर स्थित होकर पश्चिम निमाड़ ज़िले का तहसील मुख्यालय है। यह नगर धामनोद से 13 कि.मी तथा बड़वाह से 49 कि.मी संभागीय मुख्यालय, इन्दौर से 90 किलोमीटर तथा राजधानी भोपाल से 289 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। महेश्वर नगर का रेल मार्ग द्वारा सम्पर्क नहीं है, किंतु नगर के मध्य से धामनोद-बड़वाह मार्ग गुजरात है जो धामनोद में राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 3 (आगरा-मुम्बई) एवं बड़वाह में राज्य मार्ग क्रमांक 27 (खण्डवा-इन्दौर) को जोड़ता है, जिससे नगर सड़क मार्ग से सभी प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है।

भौगोलिक विशेषताएँ......

महेश्वर नगर के दक्षिण में नर्मदा नदी प्रवाहित होती है। क़िले का भाग एवं नदी का कछार वाला भाग छोड़कर नगर का सम्पूर्ण क्षेत्र समतल है तथा नगर का ढलान पूर्व एवं दक्षिण में महेश्वरी नदी एवं नर्मदा नदी की ओर है। महेश्वरी नदी का ढलान नर्मदा नदी की ओर है। निमाड़ घाटी में नर्मदा नदी के प्रवाह के कारण हुए कटाव से कई ऊंचे टीले बने हैं। महेश्वर नगर इन्हीं टीलों में से एक है। नगर के आसपास भी पहाड़ीनुमा टीले स्थित होने से नगर का विस्तार नहीं हो पाया, नगर के दक्षिण में नर्मदा नदी प्रवाहित होने से इस ओर नगर की सीमा समाप्त हो गई है। पूर्व दिशा में महेश्वरी नदी जो नर्मदा नदी में मिलती है, के कारण भी नगर का विकास अवरुद्ध हुआ है। वर्तमान में नगर का कुछ विकास मेहतवाड़ा एवं धामनोद मार्ग पर हुआ है, भविष्य में धामनोद मार्ग पर हुआ है, भविष्य में धामनोद मार्ग पर विकास की सम्भावना अधिक है। नगर का ढलान दक्षिण में नर्मदा नदी एवं पूर्व में महेश्वरी नदी की ओर होने से नगर का प्रदूषित जल एवं वर्षा का पानी इन्हीं नदियों में विसर्जित होता है। अत: इसके लिये उचित प्रबंधन किया जाना आवश्यक है। वर्षाकाल में पेशवा मार्ग, मल्हारगंज, बस स्टेण्ड आदि क्षेत्र में वर्षा के पानी का फैलाव होता है, अतः सतही जल निकासी की व्यवस्था की जाना उचित है।

पर्यटन स्थल...........

अहिल्याबाई का क़िला एवं राजगद्दी, राजराजेश्वर मन्दिर, नर्मदा के सुरम्य घाट तथा सहस्त्रधारा महेश्वर के मुख्य आकर्षण हैं, जो इसे एक दर्शनीय स्थल बनाते हैं। महेश्वर के क़िले के अन्दर रानी अहिल्याबाई की राजगद्दी पर बैठी एक मनोहारी प्रतिमा राखी गई है। महेश्वर में घाट के पास ही कालेश्वर, राजराजेश्वर, विट्ठलेश्वर और अहिल्येश्वर मंदिर हैं। मण्डलेश्वर के निकट 'वांचू पॉइन्ट' नामक स्थान है, जहाँ इन्दौर शहर में नर्मदा के जल की आपूर्ति करने वाला केन्द्र है। नर्मदा नदी का जल विद्युत पंपों द्वारा वांचू पॉइन्ट तक खींचा जाता है। यहाँ से यह जल गुरुत्व के कारण इन्दौर तक प्रवाहित होता है।

अहिल्या घाट महेश्वर के ख़ूबसूरत घाटों में से एक है। यह इतना सुन्दर है कि बस घंटों निहारते रहने का मन करता है। चारों ओर शिव जी के छोटे और बड़े मंदिर, हर जगह शिवलिंग ही शिवलिंग दिखाई देते हैं। सामने नर्मदा नदी अपने पूरे तीव्र वेग से प्रवाहित होती दिखाई देती हैं। घाट के आस पास शिव मंदिर दिखाई देते हैं और पीछे की ओर महेश्वर का ऐतिहासिक तथा ख़ूबसूरत क़िला होल्कर राजवंश तथा रानी अहिल्याबाई के शासन काल की गौरवगाथा का बखान करता प्रतीत होता है। यह घाट पूरी तरह से शिवमय दिखाई देता है। पूरे घाट पर पाषाण के अनगिनत शिवलिंग निर्मित हैं।

महेश्वर की महारानी देवी अहिल्याबाई से बढ़कर शिवभक्त आधुनिक काल में कोई नहीं हुआ है। उन्होंने पूरे भारत में शिव मंदिरों और घाटों का निर्माण तथा पुनरोद्धार करवाया था, जिनमें प्रमुख हैं...........

वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर

एलोरा का घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग

सोमनाथ का प्राचीन मंदिर

महाराष्ट्र का वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर

महेश्वर क़िला

महेश्वर का क़िला आज भी पूरी तरह से सुरक्षित है तथा बहुत ही सुन्दर तरीक़े से बनाया गया है। यह बड़ी मजबूती के साथ नर्मदा नदी के किनारे पर सदियों से डटा हुआ है। क़िले में प्रवेश के लिए घाट के पास से ही एक चौड़ा घेरा लिए बहुत सारी सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह क़िला जितना सुन्दर बाहर से है, उससे भी ज़्यादा सुन्दर तथा आकर्षक यह अन्दर से लगता है। इतनी सुन्दर कारीगरी, इतनी सुन्दर शिल्पकारी, इतना सुन्दर एवं मजबूत निर्माण की आज भी यह क़िला नया जैसा लगता है। अन्दर जाकर एक तरफ़ राजराजेश्वर शिव मंदिर है तथा दूसरी तरफ़ एक अन्य स्मारक है। कुल मिलाकर एक बड़ा ही सुन्दर दृश्य उपस्थित होता है और कहीं जाने का मन ही नहीं होता। ऐसा लगता है कि घंटों एक ही जगह खड़े होकर इस क़िले की नक्काशी तथा कारीगरी, झरोखों, दरवाज़ों एवं दीवारों को बस देखते ही रहें। क़िले के अन्दर कुछ क़दमों की दूरी पर ही प्राचीन राजराजेश्वर शैव मंदिर दिखाई देता है। यह एक विशाल शिव मंदिर है, जिसका निर्माण क़िले के अन्दर ही अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। यह मंदिर भी क़िले की ही तरह पूर्णतः सुरक्षित है एवं कहीं से भी खंडित नहीं हुआ है। आज भी यहाँ दोनों समय साफ़-सफाई, पूजा-पाठ तथा जल अभिषेक आदि अनवरत चल रहा है। देवी अहिल्याबाई इसी मंदिर में प्रतिदिन सुबह-शाम पूजा-पाठ किया करती थीं।

लम्बा चौड़ा नर्मदा नदी का तट एवं उस पर बने अनेकों सुन्दर घाट एवं पाषाण कला का सुन्दर चित्र दिखाने वाला क़िला, इस शहर का प्रमुख पर्यटन आकर्षण है। समय-समय पर इस शहर की गोद में मनाये जाने वाले तीज-त्यौहार, उत्सव, पर्व इस शहर की रंगत में चार चाँद लगा देते हैं, जिनमें 'शिवरात्रि पर होने वाला स्नान, निमाड़ उत्सव, लोकपर्व गणगौर, नवरात्र, गंगादाष्मी, नर्मदा जयंती, अहिल्या जयंती एवं श्रावण माह के अंतिम सोमवार को भगवान काशी विश्वनाथ के नगर भ्रमण की शाही सवारी प्रमुख हैं। यहाँ के पेशवा घाट, फणसे घाट और अहिल्या घाट प्रसिद्ध हैं, जहाँ तीर्थयात्री शांति से बैठकर ध्यान में डूब सकते हैं। नर्मदा नदी के बालुई किनारे पर बैठकर यात्री यहाँ के ठेठ ग्रामीण जीवन के दर्शन कर सकते हैं। पीतल के बर्तनों में पानी ले जाती महिलायें, एक किनारे से दूसरे किनारे पर सामान ले जाते पुरुष एवं किल्लोल करता बालकों का बचपन आकर्षित करता है।

देवी अहिल्या का पूजास्थल...................

महेश्वर के मंदिर दर्शनीय हैं। हर मंदिर के छज्जे, अहाते में सुन्दर नक्काशी की गई है। कालेश्वर, राजराजेश्वर, विट्ठलेश्वर और अहिल्येश्वर मंदिर विशेष रूप से दर्शनीय हैं। क़िले के अंदर देवी अहिल्या का पूजा स्थल है, जहाँ पर अनेकों धातु के तथा पत्थर के अलग-अलग आकार के शिवलिंग, कई सारे देवी-देवताओं की प्रतिमाएं और एक सोने का बड़ा-सा झूला है, जो यहाँ का मुख्य आकर्षण है, जिस पर भगवान कृष्ण की प्रतिमा को बैठाकर अहिल्याबाई होल्कर झूला दिया करती थीं। इन सारी प्रतिमाओं तथा शिवलिंगों को एक कक्ष में संग्रहीत करके रखा गया है। इस कक्ष में प्रवेश पूर्णतः निषेध है तथा इस छोटे कक्ष के लिए एक सुरक्षाकर्मी हमेशा तैनात रहता है, क्योंकि यहाँ कई मूल्यवान धातुओं की प्रतिमाएं रखी गई हैं।

देवी अहिल्याबाई के पूजा घर से कुछ कदमों की दूरी पर ही एक लकड़ी का द्वार स्थित है, जिसके अन्दर एक आलिशान महल है, जो कभी होल्कर राजवंश के शासकों का निजी आवास हुआ करता था। लेकिन आजकल इस महल को एक हेरिटेज होटल का रूप दे दिया गया है और इस होटल में एक अच्छे तीन सितारा होटल के समकक्ष सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। लगभग छः हज़ार से सात हज़ार प्रतिदीन के हिसाब से भुगतान करके यहाँ रहा जा सकता है। इस होटल का नाम है- 'होटल अहिल्या फोर्ट'। यह होटल क़िले की सबसे ऊपरी इमारत पर स्थित है और इस होटल के मालिक हैं 'प्रिन्स रिचर्ड होल्कर' तथा वे ही इस होटल की देखरेख तथा प्रबंधन का काम देखते हैं।

महेश्वर हिन्दू धर्म के लोगों के लिए किसी धार्मिक स्थल से कम नहीं है। अपने धार्मिक महत्त्व में यह शहर काशी के समान भगवान शिव की प्रिय नगरी है। मंदिरों और शिवालयों की निर्माण शृंखला के लिए इसे गुप्त काशी कहा गया है। अपने पौराणिक महत्त्व में स्कंदपुराण, रेवाखंड तथा वायुपुराण आदि के नर्मदा रहस्य में इसका 'महिष्मति' नाम से उल्लेख मिलता है।

अहिल्याबाई की स्मृतियाँ..............

इंदौर के बाद देवी अहिल्याबाई ने महेश्वर को ही अपनी स्थाई राजधानी बना लिया था तथा बाकी का जीवन उन्होंने, अपने अंत समय तक यहाँ महेश्वर में ही बिताया। माँ नर्मदा का किनारा, किनारे पर सुन्दर घाट, घाट पर कई सारे शिवालय, घाट पर बने अनगिनत शिवलिंग, घाट से ही लगा उनका सुन्दर क़िला, क़िले के अन्दर उनका निजी निवास स्थान, यही सब देवी अहिल्या को सुकून देता था और उनका मन यहीं रमता था।

शायद इसीलिए इंदौर छोड़कर वे हमेशा के लिए यहीं महेश्वर में आकर रहने लगी थीं एवं महेश्वर को ही अपनी आधिकारिक राजधानी बना लिया था। यहाँ के लोग आज भी देवी अहिल्याबाई को "मां साहेब" कह कर सम्मान देते हैं। महेश्वर के घाटों में, बाज़ारों में, मंदिरों में, गलियों में, यहाँ की वादियों में यहाँ की फिजाओं में, हर तरफ देवी अहिल्याबाई की स्मृतियों की बयारें चलती हैं। आज भी महेश्वर की वादियों में देवी अहिल्याबाई अमर हैं। मां नर्मदा सदियों से एक मूक दर्शक की तरह अपने इसी घाट से देवी अहिल्याबाई की भक्ति, उनकी शक्ति, उनका गौरव, उनका वैभव, उनका साम्राज्य, उनका न्याय अपलक देखती आई हैं और आज भी माँ रेवा का पवित्र जल देवी अहिल्याबाई की भक्ति का साक्षी है और माँ रेवा की लहरें जैसे देवी अहिल्या का गौरव गान करती प्रतीत होती हैं।

'नमामि देवी नर्मदे….. नमामि देवी नर्मेदे……. नमामि देवी नर्मदे।'

महेश्वर और बॉलीवुड में है बहुत गहरा संबंध

महेश्वर का भारतीय हिन्दी फ़िल्म उद्योग (बॉलीवुड) से बहुत गहरा संबंध है। महेश्वर के घाट तथा नर्मदा नदी के तट की सुन्दरता को अब तक कई बार हिन्दी फ़िल्मों में दिखाया जा चुका है। यहाँ पर कुछ तमिल फ़िल्मों की तथा गानों की शूटिंग भी हो चुकी है।

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अभिनेता सचिन तथा साधना सिंह अभिनीत फ़िल्म 'तुलसी' पूरी की पूरी महेश्वर के घाटों तथा आसपास के परिवेश में फ़िल्माई गई थी। यह अपने समय की एक हिट फ़िल्म थी।

फ़िल्म 'अशोका' में भी महेश्वर को फ़िल्माया गया है।

1960 की एक प्रसिद्ध पौराणिक फ़िल्म 'महाशिवरात्रि' की शूटिंग भी यहीं हुई थी तथा इस फ़िल्म में कई स्थानीय लोगों को भी अदाकारी का मौका दिया गया था।

हेमा मालिनी द्वारा निर्मित ज़ी टीवी के सीरियल 'झांसी की रानी' की शूटिंग भी महेश्वर में ही हुई थी और हेमा मालिनी अपने सीरियल के लिए यहाँ से ढेर सारी महेश्वरी साड़ियाँ भी ख़रीद कर ले गई थीं।

1985 में बनी एक और पौराणिक फ़िल्म 'आदि शंकराचार्य' की भी पूरी शूटिंग यहीं संपन्न हुई थी।

2011 में बनी धर्मेन्द्र, सनी देओल और बॉबी देओल की सुपरहिट फ़िल्म 'यमला पगला दीवाना' की 50 मिनट की शूटिंग महेश्वर के विभिन्न स्थलों जैसे बाज़ार चौक, राजवाडा, अहिल्याबाई छतरी, अहिल्या घाट तथा अन्य स्थानों पर संपन्न की गई। यह महेश्वर का दुर्भाग्य ही रहा की फ़िल्म की लगभग आधी शूटिंग महेश्वर में हुई और क़रीब एक महीने तक फ़िल्म की पूरी टीम यहाँ होटल अहिल्या फोर्ट में रुकी, लेकिन फ़िल्म में इस जगह को 'वाराणसी' के रूप में दिखाया है।

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