हमें ही तय करना है कैसी होगी अगली दुनिया -अमित मंडलोई, पत्रकार

कोरोना के संकट के बीच एक बात सभी बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे हैं कि अब दुनिया वैसी नहीं रहेगी, जैसी ये महीने-दो महीने पहले थी। तरह-तरह की शंका-कुशंकाओं के बीच लाेग यही सोच रहे हैं कि अब आगे जिंदगी कैसे बसर होगी। दफ्तर घर आ गए हैं, दुकानों पर ताले चढ़े हुए हैं। अर्थव्यवस्था किसी तरह सांस ले रही है, लेकिन वह कब और कैसे रवानी पर आएगी, कोई नहीं जानता। जेबों के मुंह आश्चर्य और भय से खुले हुए हैं। उसमें अनिश्चितता का कुंहासा भर गया है। घरों में कैद लोग इसी बात को लेकर सबसे ज्यादा बेचैन हैं। 


किसी ने कहा, मैं पहले बड़ी गाड़ी लेने की सोच रहा था। अब लगता है कि उतनी बड़ी गाड़ी और ब्रांड की मुझे जरूरत नहीं है। छोटी से भी काम चल जाएगा। जो पैसा बचेगा वह परिवार की बाकी जरूरतों में काम आएगा। क्या पता फिर कोई वायरस आ जाए। पैसा बचाकर रखना होगा। उनकी बातों में यह डर भी शामिल था कि क्या पता नौकरी रहेगी या नहीं। रहेगी तो इतना ही पैसा मिल पाएगा या नहीं। वेतन में कटौतियों की किस्से तमाम निवेदन-अनुरोध और अपीलों के बावजूद हवाओं में तैरने लगे हैं। सबसे ज्यादा डर उन लोगों में है, जिन पर बड़ी जिम्मेदारियां है। सैकड़ों कर्मचारियों और लाखों शेयर होल्डर्स का जोखिम सिर पर लेकर चल रहे हैं। 


वे अभी तो ऑफिस का खर्च बचाने के लिए वर्क फ्रॉर्म होम को स्थाई तौर पर लागू करने की सोच रहे हैं। क्या जाने फिर कर्मचारियों की संख्या को लेकर भी ऐसे ही अक्कड़-बक्कड़ होने लगे। क्योंकि हमेशा 100 लगाकर डेढ़ सौ-दो सौ, ढाई सौ कमाते आए हैं। अब 100 गंवाएंगे अगर तो उसके बदले में क्या करेंगे समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। खर्च कम करने का मतलब क्या निकाला जाएगा, क्या निकलेगा और उसका सब पर क्या असर होगा। यह सब अभी गडमड है। किसी अंधेरी सुरंग की तरह मुंह बाए खड़ी है। इतना घना अंधकार है कि बाहर का किसी को कुछ नजर ही नहीं आ रहा। 


हालांकि कुछ ऐसे भी हैं, जो इसे मौके की तरह देख रहे हैं। कहते हैं, दुनिया नए तौर-तरीके सीखेगी, उनको समय पर भांप कर उसके हिसाब से चलना होगा। घर से काम चाहते हैं तो वहीं से नई-नई चीजें कर के देना होगी। इसी से रास्ता निकलेगा। पूरी दुनिया के ताले खुल जाएंगे। यहां-वहां से नए काम आएंगे, भरपूर पैसा मिलेगा। कंपनियों का रुख लचीला होगा तो हमें भी काम के पारंपरिक तरीके छोड़ने होंगे। रोजगार और नौकरी के बीच का फर्क समझना होगा। जो समझ जाएंगे वे बढ़ जाएंगे, जो नहीं समझेंगे वे यहीं रह जाएंगे। दुनिया नौकरी देने वाले, नौकरी पाने वाले और इनके बीच बसर करने वालों के बीच टुकड़े-टुकड़े हुए जाती। 


फिर सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि जिन घरेलू कर्मचारियों को घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है, उनका क्या होगा। क्या अब वे कभी दोबारा उस दुनिया में जगह बना पाएंगे या हाइजीन की आड़ में वैसे ही गेट से लौटा दिए जाएंगे। कॉलोनियों के दरवाजे किसी किले की तरह तो नहीं हो जाएंगे। जिसमें घुसने की कोई दूसरा सोच भी नहीं पाएगा। समाज फिर टुकड़ों में बंट जाएगा। जहां श्रेष्ठीजन अपने लिए अलग हाइजिनिक दुनिया बना लेंगे। अपना सूरज उगाएंगे, चांद-तारे और नदी-पहाड़ खड़े कर लेंगे। जहां हवा को भी छनकर ही अंदर जाने की इजाजत होगी, बाकियों की तो बिसात ही क्या। गेट पर पूरा स्कैन करने के बाद ही कोई भीतर दाखिल हो सकेगा। जिसे वे आने देना चाहेंगे। 


फिर सवाल यह भी है कि घर पहुंच सेवा की आदत छोटी दुकानों को कहां ले जाकर छोड़ेगी। मोबाइल वीडियो, गेम्स और टिकटॉक तक सिमटी चहारदीवारियों में फिर कभी दोस्तों के ठहाके गूंज भी पाएंगे या नहीं। या सोशल डिस्टेंसिंग ही पसर जाएगी, हर जगह, घरों से लेकर रिश्तों और अहसासों तक। गलियां इतनी संकरी हो जाएंगी कि वहां दूसरे की जगह ही नहीं रह जाएगी। और ये गलियां कतई प्रेम की गलियां नहीं होंगी। प्रेम और भरोसे को ही शायद सबसे पहले अपनी नई परिभाषा खोजना होगी। जरा से सिम्टम्स के साथ अकेले छोड़े गए बुजुर्ग और बच्चे इस बात की गवाही दे रहे हैं। 


ये डर बहुत सारे हैं, लेकिन उनके बीच उतनी उम्मीदें भी झांक रही हैं। जिन्हें उन तस्वीरों से ताकत मिल रही है, जिसमें लोग नोट जलाते हुए, बालकनियों से फेंकते लोग नजर आ रहे हैं। शायद ये दुनिया दोस्तों की कीमत और गहराई से महसूस करे, रिश्तों में और गर्माहट बढ़े, एक-दूसरे के दर्द को ज्यादा करीब से समझ पाएं। सारे दरवाजे-खिड़कियां खोल दें, दीवारें गिरा दें और बाहें फैलाकर सबको गले लगा लें। सारी कड़वाहट भूल जाएं। दुनिया कोरोना के साथ और कोरोना के बाद अगला कदम किस दिशा में बढ़ाएगी यह हमें ही तय करना है।


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